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लब्धप्रणाशम्] [२११

ब्राह्मण ने यह स्वीकार कर लिया। ब्राह्मणी फिर जीवित हो गई। दोनों ने यात्रा शुरू करदी।

वहाँ से बहुत दूर एक नगर था। नगर के बारा में पहुँचकर ब्राह्मण ने कहा—"प्रिये! तुम यहीं ठहरो, मैं अभी भोजन लेकर आता हूँ।" ब्राह्मण के जाने के बाद ब्राह्मणी अकेली रह गई। उसी समय बाग़ के कुएं पर एक लंगड़ा, किन्तु सुन्दर जवान रहट चला रहा था। ब्राह्मणी उससे हँसकर बोली। वह भी हँसकर बोला। दोनों एक दूसरे को चाहने लगे। दोनों ने जीवन भर एक साथ रहने का प्रण कर लिया।

ब्राह्मण जब भोजन लेकर नगर से लौटा तो ब्राह्मणी ने कहा—"यह लँगड़ा व्यक्ति भी भूखा है, इसे भी अपने हिस्से में से दे दो।" जब वहाँ से आगे प्रस्थान करने लगे तो ब्राह्मणी ने ब्राह्मण से अनुरोध किया कि—"इस लँगड़े व्यक्ति को भी साथ ले लो। रास्ता अच्छा कट जायगा। तुम जब कहीं जाते हो तो मैं अकेली रह जाती हूँ। बात करने को भी कोई नहीं होता। इसके साथ रहने से कोई बात करने वाला तो रहेगा।"

ब्राह्मण ने कहा—"हमें अपना भार उठाना ही कठिन हो रहा है, इस लँगड़े का भार कैसे उठायेंगे?"

ब्राह्मणी ने कहा—"हम इसे पिटारी में रख लेंगे।"

ब्राह्मण को पत्नी की बात माननी पड़ी।

कुछ दूर जाकर ब्राह्मणी और लँगड़े ने मिलकर ब्राह्मण को धोखे से कूएँ में धकेल दिया। उसे मरा समझ कर वे दोनों आगे बढ़े।