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२१२] [पञ्चतन्त्र


नगर की सीमा पर राज्य-कर वसूल करने की चौकी थी। राजपुरुषों ने ब्राह्मणी की पटारी को ज़बर्दस्ती उसके हाथ से छीन कर खोला तो उस में वह लँगड़ा छिपा था। यह बात राज-दरबार तक पहुँची। राजा के पूछने पर ब्राह्मणी ने कहा—"यह मेरा पति है। अपने बन्धु-बान्धुवों से परेशान होकर हमने देश छोड़ दिया है।" राजा ने उसे अपने देश में बसने की आज्ञा दे दी।

कुछ दिन बाद, किसी साधु के हाथों कुएँ से निकाले जाने के उपरान्त ब्राह्मण भी उसी राज्य में पहुँच गया। ब्राह्मणी ने जब उसे यहाँ देखा तो राजा से कहा कि यह मेरे पति का पुराना वैरी है, इसे यहाँ से निकाल दिया जाये, या मरवा दिया जाये। राजा ने उसके वध की आज्ञा दे दी।

ब्राह्मण ने आज्ञा सुनकर कहा—"देव! इस स्त्री ने मेरा कुछ लिया हुआ है। वह मुझे दिलवा दिया जाये।" राजा ने ब्राह्मणी को कहा—"देवी! तूने इसका जो कुछ लिया हुआ है, सब दे दे।" ब्राह्मणी बोली—मैंने कुछ भी नहीं लिया।" ब्राह्मण ने याद दिलाया कि—"तूने मेरे प्राणों का आधा भाग लिया हुआ है। सभी देवता इसके साक्षी हैं।" ब्राह्मणी ने देवताओं के भय से वह भाग वापिस करने का वचन दे दिया। किन्तु वचन देने के साथ ही वह मर गई। ब्राह्मण ने सारा वृत्तान्त राजा को सुना दिया।

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बन्दर ने फिर मगर से कहा—"तू भी स्त्री का उसी तरह दास बन गया है जिस तरह वररुचि था।"

मगर के पूछने पर बन्दर ने वररुचि की कहानी सुनाई—