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[पञ्चतन्त्र
 

प्रियदर्शना पत्नी का सौन्दर्य भी रूखा और निर्जीव प्रतीत होने लगता है। जलाशय में उठते बुलबुलों की तरह उनकी मानमर्यादा समाज में नष्ट हो जाती है। निर्धनता की इन भयानक कल्पनाओं से मणिभद्र का दिल कांप उठा। उसने सोचा, इस अपमानपूर्ण जीवन से मृत्यु अच्छी है। इन्हीं विचारों में डूबा हुआ था कि उसे नींद आ गई। नींद में उसने एक स्वप्न देखा। स्वप्न में पद्मनिधि ने एक भिक्षु की वेषभूषा में उसे दर्शन दिये, और कहा "कि वैराग्य छोड़ दे। तेरे पूर्वजों ने मेरा भरपूर आदर किया था। इसीलिये तेरे घर आया हूँ। कल सुबह फिर इसी वेष में तेरे पास आऊँगा। उस समय तू मुझे लाठी की चोट से मार डालना। तब मैं मरकर स्वर्णमय हो जाऊँगा। वह स्वर्ण तेरी ग़रीबी को हमेशा के लिए मिटा देगा।"

सुबह उठने पर मणिभद्र इस स्वप्न की सार्थकता के संबन्ध में ही सोचता रहा। उसके मन में विचित्र शंकायें उठने लगीं। न जाने यह स्वप्न सत्य था या असत्य, यह संभव है या असंभव, इन्हीं विचारों में उसका मन डांवाडोल हो रहा था। हर समय धन की चिन्ता के कारण ही शायद उसे धनसंचय का स्वप्न आया था। उसे किसी के मुख से सुनी हुई यह बात याद आ गई कि रोगग्रस्त, शोकातुर, चिन्ताशील और कामार्त्त मनुष्य के स्वप्न निरर्थक होते हैं। उनकी सार्थकता के लिए आशावादी होना अपने को धोखा देना है।

मणिभद्र यह सोच ही रहा था कि स्वप्न में देखे हुए भिक्षु