पृष्ठ:पंचतन्त्र.pdf/२३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
अपरीक्षितकारकम्]
[२३३
 

के समान ही एक भिक्षु अचानक वहां आ गया। उसे देखकर मणिभद्र का चेहरा खिल गया, सपने की बात याद आ गई। उसने पास में पड़ी लाठी उठाई और भिक्षु के सिर पर मार दी। भिक्षु उसी क्षण मर गया। भूमि पर गिरने के साथ ही उसका सारा शरीर स्वर्णमय हो गया। मणिभद्र ने उसका स्वर्णमय मृत देह छिपा लिया।

किन्तु, उसी समय एक नाई वहां आ गया था। उसने यह सब देख लिया था। मणिभद्र ने उसे पर्याप्त धन-वस्त्र आदि का लोभ देकर इस घटना को गुप्त रखने का आग्रह किया। नाई ने वह बात किसी और से तो नहीं कही, किन्तु धन कमाने की इस सरल रीति का स्वयं प्रयोग करने का निश्चय कर लिया। उसने सोचा यदि एक भिक्षु लाठी से चोट खाकर स्वर्णमय हो सकता है तो दूसरा क्यों नहीं हो सकता। मन ही मन ठान ली कि वह भी कल सुबह कई भिक्षुओं को स्वर्णमय बनाकर एक ही दिन में मणिभद्र की तरह श्रीसंपन्न हो जाएगा। इसी आशा से वह रात भर सुबह होने की प्रतीक्षा करता रहा, एक पल भी नींद नहीं ली।

सुबह उठकर वह भिक्षुओं की खोज में निकला। पास ही एक भिक्षुओं का मन्दिर था। मन्दिर की तीन परिक्रमायें करने और अपनी मनोरथसिद्धि के लिये भगवान बुद्ध से वरदान मांगने के बाद वह मन्दिर के प्रधान भिक्षु के पास गया, उसके चरणों का स्पर्श किया और उचित वन्दना के बाद यह विनम्र निवेदन किया कि—"आज की भिक्षा के लिये आप समस्त