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२.

लालच बुरी बला

अतिलोभो न कर्त्तव्यो लोभं नैव परित्यजेत्।
अतिलोभाभिभूतस्य चक्रं भवति मस्तके॥


धन के अति लोभ से मनुष्य धन-संचय के चक्कर में
ऐसा फँस जाता है जो उसे केवल कष्ट ही कष्ट देता है।

एक नगर में चार ब्राह्मण पुत्र रहते थे। चारों में गहरी मैत्री थी। चारों ही निर्धन थे। निर्धनता को दूर करने के लिए चारों चिन्तित थे। उन्होंने अनुभव कर लिया था कि अपने बन्धु-बान्धवों में धनहीन जीवन व्यतीत करने की अपेक्षा शेर-हाथियों से भरे कंटीले जङ्गल में रहना अच्छा है। निर्धन व्यक्ति को सब अनादर की दृष्टि से देखते हैं, बन्धु-बान्धव भी उस से किनारा कर लेते हैं, अपने ही पुत्र-पौत्र भी उस से मुख मोड़ लेते हैं, पत्नी भी उससे विरक्त हो जाती है। मनुष्यलोक में धन के बिना न यश संभव है, न सुख। धन हो तो कायर भी वीर हो जाता है, कुरूप भी सुरूप कहलाता है, और मूर्ख भी पंडित बन जाता है।

(२३९)