पृष्ठ:पंचतन्त्र.pdf/२४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
२४२]
[पञ्चतन्त्र
 

आगे ही बढ़ेंगे।" यह कहकर दोनों मित्र आगे बढ़ गये।

उन दो में से एक के हाथ से फिर दीपक गिर गया। खोदने पर उसे सोने की खान मिल गई। उसने कहा—"यहाँ जितना चाहो सोना ले लो। हमारी दरिद्रता का अन्त हो जायगा। सोने से उत्तम कौन-सी चीज़ है। आओ, सोने की खान से यथेष्ट सोना खोद लें और घर ले चलें।" उसके मित्र ने उत्तर दिया—"मूर्ख! पहिले ताँबा मिला था, फिर चाँदी मिली, अब सोना मिला है; निश्चय ही आगे रत्नों की खान होगी। सोने की खान छोड़ दे और आगे चल।" किन्तु, वह न माना। उसने कहा—"मैं तो सोना लेकर ही घर चला जाऊँगा, तूने आगे जाना है तो जा।"

अब यह चौथा युवक एकाकी आगे बढ़ा। रास्ता बड़ा विकट था। काँटों से उसका पैर छलनी हो गया। बर्फ़ीले रास्तों पर चलते-चलते शरीर जीर्ण-शीर्ण हो गया, किन्तु वह आगे ही आगे बढ़ता गया।

बहुत दूर जाने के बाद उसे एक मनुष्य मिला, जिसका सारा शरीर खून से लथपथ था, और जिसके मस्तक पर चक्र घूम रहा था। उसके पास जाकर चौथा युवक बोला—"तुम कौन हो? तुम्हारे मस्तक पर चक्र क्यों घूम रहा है? यहाँ कहीं जलाशय है तो बतलाओ, मुझे प्यास लगी है।"

यह कहते ही उसके मस्तक का चक्र उतर कर ब्राह्मणयुवक के मस्तक पर लग गया। युवक के आश्चर्य की सीमा न रही। उसने कष्ट से कराहते हुए पूछा—"यह क्या हुआ? यह चक्र