पृष्ठ:पंचतन्त्र.pdf/२६४

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अपरीक्षितकारकम्] [२५९

कहा—"मित्र! बात तो सच है। जिसके पास न तो स्वयं बुद्धि है और न जो मित्र की सलाह मानता है, वह मन्थरक नाम के जुलाहे की तरह तबाह हो जाता है।"

स्वर्णसिद्धि ने पूछा—"वह कैसे?"

चक्रधर ने तब यह कहानी सुनाई—