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मित्रभेद]
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शाखायें चोट कर रही थीं। गोमायु ने स्वयं भी उसपर हाथ मारने शुरू कर दिये। ढोल और भी ज़ोर से बज उठा।

गीदड़ ने सोचा : 'यह जानवर तो बहुत सीधा-सादा मालूम होता है। इसका शरीर भी बहुत बड़ा है। मांसल भी है। इसे खाने से कई दिनों की भूख मिट जायगी। इसमें चर्बी, मांस, रक्त खूब होगा।' यह सोचकर उसने ढोल के ऊपर लगे हुए चमड़े में दांत गड़ा दिये। चमड़ा बहुत कठोर था, गीदड़ के दो दांत टूट गये। बड़ी कठिनाई से ढोल में एक छिद्र हुआ। उस छिद्र को चौड़ा करके गोमायु गीदड़ जब नगाड़े में घुसा तो यह देखकर बड़ा निराश हुआ कि वह तो अन्दर से बिल्कुल खाली है; उसमें रक्त, मांस, मज्जा थे ही नहीं।

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इसीलिये मैं कहता हूँ कि "शब्द-मात्र से डरना उचित नहीं है।"

पिंगलक ने कहा—"मेरे सभी साथी उस आवाज़ से डर कर जंगल से भागने की योजना बना रहे हैं। इन्हें किस तरह धीरज बँधाऊँ?"

दमनक—"इसमें इनका क्या दोष? सेवक तो स्वामी का ही अनुकरण करते हैं। जैसा स्वामी होगा, वैसे ही उसके सेवक होंगे। यही संसार की रीति है। आप कुछ काल धीरज रखें, साहस से काम लें। मैं शीघ्र ही इस शब्द का स्वरूप देखकर आऊँगा।"

पिंगलक—"तू वहाँ जाने का साहस कैसे करेगा?"