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[पञ्चतन्त्र
 


थोड़ी दूर जाकर जब वह थक गया और गर्मी बहुत सताने लगी तो उसने मार्ग के एक वृक्ष की छाया में विश्राम लिया। थका हुआ तो था ही, नींद आगई। उसी वृक्ष के बिल में एक सांप रहता था। वह जब ब्रह्मदत्त के पास आया तो उसे कपूर गन्ध आगई। कपूर की गन्ध सांप को प्रिय होती है। सांप ने ब्रह्मदत्त के कपड़ों में से कपूर की डिबिया खोज ली, लेकिन जब उसे खाने लगा, कर्कट ने सांप को मार दिया।

ब्रह्मदत्त जब जागा तो देखा कि पास ही काला सांप मरा है। उसके पास कपूर की डिबिया भी पड़ी थी। वह समझ गया कि यह काम कर्कट का ही है। प्रसन्न होकर वह सोचने लगा—"माँ सच कहती थी कि पुरुष को यात्रा में कभी एकाकी नहीं जाना चाहिये। मैंने श्रद्धापूर्वक माँ का वचन पूरा किया, इसीलिये काला सांप मुझे काट नहीं सका; अन्यथा मैं मर जाता।"

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इस कहानी के बाद स्वर्णसिद्धि अपने मित्र चक्रधर को वहीं छोड़कर अपने घर वापिस आ गया।

 

◎ पंचमतन्त्र समान ◎
॥ इति ॥