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मित्रभेद]
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शत्रु-नाश नहीं हो सकता। आज वह आपको धोखे से मारकर राज्य करना चाहता है। अच्छा है कि उसका षड्‌यन्त्र पकने से पहले ही उसको मार दिया जाए।"

पिङ्गलक:—"दमनक! जिसे हम ने पहले गुणी मानकर अपनाया है उसे राज-सभा में आज निर्गुण कैसे कह सकते हैं? फिर तेरे कहने से ही तो मैंने उसे अभयवचन दिया था। मेरा मन कहता है कि संजीवक मेरा मित्र है, मुझे उसके प्रति कोई क्रोध नहीं है। यदि उसके मन में वैर आ गया है तो भी मैं उसके प्रति वैर-भावना नहीं रखता। अपने हाथों लगाया विष-वृक्ष भी अपने हाथों नहीं काटा जाता।"

दमनक—"स्वामी! यह आपकी भावुकता है। राज-धर्म इसका आदेश नहीं देता। वैर बुद्धि रखने वाले को क्षमा करना राजनीति की दृष्टि से मूर्खता है। आपने उसकी मित्रता के वश में आकर सारा राज-धर्म भुला दिया है। आपके राज-धर्म से च्युत होने के कारण ही जङ्गल के अन्य पशु आपसे विरक्त हो गए हैं। सच तो यह है कि आप में और संजीवक में मैत्री होना स्वाभाविक ही नहीं है। आप मांसाहारी हैं, वह निरामिषभोजी। यदि आप उस घासपात खाने वाले को अपना मित्र बनायेंगे तो अन्य पशु आप से सहयोग करना बन्द कर देंगे। यह भी आपके राज्य के लिए बुरा होगा। उसके संग से आपकी प्रकृति में भी वे दुर्गुण आ जायेंगे जो शाकाहारियों में होते हैं। शिकार से