पृष्ठ:पउमचरिउ.djvu/८१

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40 PALMACARIU - विशालभाललोलपूर्णमानकज्जलोज्ज्वलालकदिरेफमालिकोपशोभिते। विवबहावमुद्धचारुपक्ष्मलालसभ्रमत्सुतारदीर्घनेत्रपत्रसुन्दरे ।। अमन्दकुन्दकुडमलामकोमलोल्लसद्युतीद्धशुद्धदन्तपडितकेसरालये। प्रियामुखाम्बुजेऽधरं चिराय मध्विवापिबन्ननारतं भवेदनङगशेखरः ।। Ch. p. 196, 1. 12-13. (6) भुअङगविलासो तस्सेअ (सुद्धसहावस्स) वामहरम्मि वरे कसणाअरुडड्ढिअधूवसुअंधमणोहरए कमणीए। पीणघणुण्णअचक्कलथोरथणीअ स परिपेल्लिअवच्छअलो रमणीए । कोमलबाहुकलआदढवेढिअओ पडिवट्टमुणेत्तविअंसिअए सअणीए। पावइ णिद्दिअअं हिअइच्छिअअं सहि जो चिअ पुण्णजुओ स णरो रअणीए । SC. I 173. पीनघनोन्नतवृत्तविशालतरम्तनमण्डलगाढनिपीडनकण्टकिताङगः । कोमलपड्जमृणाललतादृढवेष्टितकण्ठतट: परिचुम्बनविभ्रमपात्रम् ॥ वासगृहे बहलोच्चलितागुरुधूमलतानिचिते शयने मृदुनि क्षणदायां । यो दयितां रमयत्यतिसंभ्रममानजुषं स भुजङगविलासधुरामिह धत्ते ॥ Ch. p. 206, 1. 1-3. (7) Echoes from Sc. I 29 are found in Ch. p. 21b, st. 31. (8) अवदुवहउ अज्जदेवस्म- काइं करउं हउंमाए। पिउण गणइ लग्गी पाए ।। मण्णु घरन्ने हो जाइ । कहिण उत्तरङग भणा | sc. IV 13. एत्थु करिमि भणि काई । प्रिउ न गणइ लग्गी पाइ । छडेविणु हउं मुक्की । अवदोहय जिम्व किर गावि ॥ Ch. VI 19, 45. (9) वीअचलणे मत्तबालिआ गोइन्दस्स- कमलकुमुअह एक्क उप्पत्ति। ससि तो वि कुमुआअरह । देइ सोक्व कमलह दिवाअर ॥ पाविज्जइ अवस फलु । जेण जस्स पासे ठवेइउ | SC. IV 17. कुमुअकमलहं एक्क उप्पत्ति मउलेइ तु वि कमलवणु । कुमुअसंडु निच्चु वि विआमह॥ मच्छन्दविआरिणिय । चंदजोण्ह कि मत्तवालिआ | Ch. V 18, 18. The last two lines of the stanza in Ch. are different. (10) याआला फरसा विन्धणा । गुणेहिं विमुक्का पाणहरा ॥ जिह दुज्जणु सज्जणउवरि । तिह पसरु ण लहन्ति सग॥ SC. VI 150. वायाला फरसा विधणा । गुणिहि विमुक्का प्राणहर। जह दुज्जण सज्जणजणउवरि । तेम्व पसरु न लहंति सर ॥ Ch. VI 21, 118. (11) किर कण्णकलिङग परिज्जिआ। टिअ णवर माणविवज्जिआ ॥ णहु कोवि अहिट्ठइ मुणिअवहे । कहिं धरइ जअद्दह कण्ह कहे ॥ SC. VI 152. कृवकण्णकलिङग परज्जिआ। ठिअ नरवड माणविवज्जिआ॥ नह कोद्द अभिट्टइ अणिअवहि । कहिं वइरि जयद्दहु कण्ह कहि ॥ Ch. VI 20, 116. (12) मत्तकरिणी जहा तसेज (गोइन्दस्स)-- सव्व गोविउ जइवि जोस्एइ हरि सुट्ठवि आअरेण । देइ दिठि जहिं कहि वि राही ।। को सक्कड़ संवरेवि। उढणअण णेहें पलोट्टउ ।। एक्कमेक्कउ जइबि जोएदि। हरि दुठ्ठ सव्वाअरेण । तो वि देहि जहि कहिं वि राही।। को सक्कइ संवरेवि। दवणअण णेहें पलुट्टा ॥ Hemacandra's Prakrit Grammar IV 422 (6). ।