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पत्थर-युग के दो बुत
 

१० पत्थर-युग के दो बुत - त्रुम्बन, वही वज्रहास पहाड को हिला देनेवाला, वही वज्र-वक्ष और प्यार की चितवन एव अतीन्द्रिय अानन्द का चरम आदान-प्रदान । मेरा सूक्ष्म शरीर मडराता रहता उनकी मानस-मूर्ति के चारो ओर , दुनिया मे और भी कही कुछ है, मै नही जानती थी, नहीं देखती थी। मेरे शरीर के भीतर मेरे रक्त की प्रत्येक ब्द मे उनकी कमनीय मूर्ति वसी थी, और मेरे नेत्रो के वाहर सूरज के प्रकाश मे सुशोभित रगीन विश्व मे तथा धवल चन्द्र-ज्यो- त्म्ना की उज्ज्वल छटा मे वे ही दीस पडते थे—केवल वे ही । और जब वे सशरीर मेरे सामने आ खड़े होते ये तव जैसे विश्व मे अमन्य रूपो मे विखरी हुई उनकी मूर्तिया सिमटकर एकीभूत हो गई हो- ऐसा मुझे भान होता था। क्या कहू मैं अपनी बात, मैं दीवानी हो गई थी। मै होश-हवास खो बैठी थी। किस भाग्यवती को कभी प्रेम का ऐसा भया- नक बुखार चढा होगा | किस नारी ने प्रेम का यह उज्ज्वल-उत्कट रूप देवा होगा। एक दिन अकस्मात् ही उन्होने अाकर मुझसे कहा, "आज मेरा वर्थडे है।" और पाच सौ रुपयो के नोटो का गट्ठर मेरे हाथ मे यमा दिया। "कुछ मित्र भी आएगे शाम को, जैसी ठीक समझो, व्यवस्था करना और एक अच्छी-सी साडी अपने लिए ग्राना।"वे तो इतना कहकर और एक चुम्बन लेकर ग्राफिस चले गए। और मैं उन नोटो के गट्ठर को हाथ मे लिये जड वनी वैठी रही। क्या करू, मेरी समझ मे नही पा रहा था । वचपन मे मेरे माता-पिता मेरा जन्म-दिन मनाते थे। मेरे लिए मिठाइया पाती थी, नये कपडे पाते थे, सिलौने और सौगातें पाती थी, पर वे सब तो वचपन की बाते है। ये तो बच्चे नहीं है, फिर यह बर्थडे कैसा मनाया जाएगा। परन्तु शीघ्र ही मेरी जडता दूर हो गई। मन स्फूर्ति से भर गया। तभी ग्राफिस का चप- रासी आ उपस्थित हुआ। उसने कहा, “गाडी ले गाया ह । चलिए बाजार से जो-जो खरीदना है ले पाइए।" और मैं न जाने क्या-क्या खरीद लाई। चपरासी ने भी बहुत मदद की। मिठाइया, नमकीन, फल, विस्कुट,पेस्ट्री, मुरव्वे, पापड और न जाने क्या-क्या? कौन-कौन पाएगे, यह मैं नही