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पत्थर-युग के दो बुत
 

आपे को अतिक्रान्त कर गया। भूल गई मैं अपने को-अपने नारी-जीवन को, अपने तन को, मन को, अपनेपन को। रह गई वही वज्रवत् की आधार-शिला, बलिष्ठ बाहुओं का वह आवेष्टन, चुम्बन का वह महादान। और मैं गरिमा मे डूब गई। कहाँ गया वह शैशव व बाल-लीला, माता-पिता का वह लाड-प्यार, जिसे जीवन का अब तक आधार समझती रही। अब तो ऐसा लग रहा था––वह सब तो एक स्वप्न था––वास्तविक जीवन तो अब प्रारम्भ हुआ है, इक्कीस वर्ष की वय में। अपने ही भीतर मैने अपने को नया जन्म धारण करते देखा––इस नये जन्म के बाद मेरा जीवन भी नवीन हो गया। अब इसकी उस अतीत शैशव से भला क्या तुलना हो सकती थी!

दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि इस बीच मेरे माता और पिता स्वर्गवासी हो गए। पर अपने सौभाग्य के ऐश्वर्य में मैं ऐसी मदहोश थी कि यह दुर्भाग्य मुझे कुछ खला ही नहीं। यह तो मैंने समझा कि कुछ मेरा अपना खो गया, पर उससे मेरी कुछ हानि हुई, ऐसा तो मैंने समझा ही नहीं। पत्थर पड़े मेरी बुद्धि पर, मेरी स्वार्थपरता पर, मेरी मूढ़ता पर। मैं ऐसी मतवाली हो गई कि माता-पिता की उस गोद को एकबारगी ही भूल गई––जिसने पूरे इक्कीस बरस तक अपने वात्सल्य से मुझे यौवन के राजसिंहासन पर ला बिठाया था। हाँ, मैं रोई थी, पर उन्होंने मुझे अधिक रोने नहीं दिया, मेरे आँसू-भरे नेत्रों पर चुम्बन के अनगिनत अंक अंकित करके गीली आँखों को सूखा कर दिया। मैंने देखा, तिनके का सहारा खोकर मुझे अब विशाल वटवृक्ष का सहारा मिल गया। संसार की सब पुत्रियों की भाँति में भी मूढ़ अहम्मन्यता की शिकार बन गई। माता-पिता को मैं भूलती चली गई।

और अब आया उनका जन्म-दिन। उनका यह बत्तीसवाँ जन्म-दिन था। पर मेरे लिए पहला ही था। अभी पाँच ही महीने तो मुझे व्याहकर आए हुए थे। इसी बीच प्यार के सुख और माता-पिता के विछोह के दुःख ने मुझे झकझोर डाला था। मैं कुछ खोई-कोई-सी रहती थी। वे ऑफिस जाते तो मैं घर में सोते-जागते, उन्हीं का स्वप्न देखती। वही आलिंगन, वही