पृष्ठ:पत्थर युग के दो बुत.djvu/११७

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पत्थर-युग के दो बुत
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पत्थर-युग क दा वुत 1 "न-न, मैं चाहता हू तुम अाज की मेरी प्रागप्रिया पन्नी वनो। मैन तुम्हे जो व्याह के बाद लेना सिखाया है उने अधिक न अधिक नो। कितना प्यार, कितना सुख अजलि मे लिये मैं प्रतीक्षा कर रहा है। पता है लो-लो-लो | लेकिन तुम हो कि अान्व उठाकर देवनी तक नहीं । क्या इतने ही मे तुम्हारी मुझने तृप्ति हो गई ? कहा गई तुम्हागे वह बान- व्याकुल-प्रातर मूर्ति, उन्मुन्ब प्यार की चिकनी हुई गुटिया' हनी र फूल बखेरती हुई, नजर के तीर च नाती हुई, गर्गर की मुपमा जाती हुई जो तुम पाती थी-वह नम अब कहा हा "मैं तो वही हू । तुम्हारी समझ का फेर है। "प्रोफ, कितना ठण्डा जवाब है । मेरी प्यारी रमा मान पाया मरी गोद में बैठो। मेरे कण्ठ मे मुकोमल मुजयन टारगर तुम्हे क्या चाहिए ? मै तुम्हारे लिए क्या TV रा "मुझे कुछ भी दु स नहीं है।" वैसे ही ठण्डा जवाव । रेखा, मेरा नाद तुमसे क्षमा माग् ।" "तुम व्यर्थ ही बात का बनगड वना रह हो । "तो बतायो क्या वात है "कुछ बात हो तो कह ।" "अच्छा, मेरी बात छोडो ग्राजाल तन गरी रहती हो।" +4 . राना नाम