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पत्थर-युग के दो बुत
 

१२ पत्थर-युग के दो वुत ? पाच महीनो मे मैंने उन्हे एक बार भी मदहोश नही देखा था। शराब की तेज़ महक अवश्य उनके मुह से ग्राती थी , पर वह महक कमी है, यह मैं नही जानती थी। शर्म के मारे पूछ भी न मकती थी। कभी-कभी मुझे सहन नही होती थी। फिर भी मैं अपनी ग्लानि को नहीं प्रकट करती थी। किन्तु ग्राज मैंने देखा। सबके जाने पर उनके तीन-चार अन्तरग मित्र पीने वैठे ये। मैं उम मडली मे नही गई। कोई स्त्री उम मडली मे न थी। सब पुरुप ही ये। यो वे मुझे बुलाकर अपने मित्रो से परिचय कराते थे। पर इस वक्त नहीं बुलाया। रात बीतती जा रही थी और मैं उनके अंक मे समा जाने को छटपटा रही थी। पर यह मडली तो जमी बैठी थी। रामचरन चपरामी से-उमी बूढे ब्राह्मण से मैंने पूछा, "वहा अव ये क्या कर रहे हैं ? खाना- पीना तो सबका कब का खत्म हो चुका।" बूढा चपरानी सब जानता था। रात-दिन बड़े अफसरो मे रहता था। भला उसमे क्या वात छिपी थी। पर वह मुझमे सव बातें खोलकर कहना नही चाहता था। जब-जब मैंने पूछा, तो उमने यही कहकर टाल दिया, "अपना दिल वला रहे है माजी। खुशी के मौके पर तो ऐसा होता ही है। मव वडे आदमी बैठे हैं।" बहुत वार पूछने पर बताता, "ट्रिक हो रहा है।' यह ‘ट्रिक' क्या होता है, यह भी उसने बताया तो मेरा माथा घूम गया-हे भगवान् | इस तरह वे शराब पीते हैं। बहुत शरावियो को मैंने नशे मे गन्दी हानत मे देखा था। मैं डर रही थी, वेचैन हो रही थी। आखिर वहुत देर बाद ड्रिंक का दौर खत्म हुअा। एक-एक करके वे अन्तरग मित्र भी अपनी-अपनी मोटरो मे बैठकर रवाना हो गए। केवल एक रह गए दिनीपकुमार राय, गृह-विभाग के अडर सेक्रेटरी। वे सबसे पहले आए थे, और सबसे पीछे गए , मैंने देखा-मीवे ढग से नहीं, दो आदमियो ने उन्हे पकडकर गादी मे डाला। वे भी मोटर तक उनके साथ ये। जब वे लौटे तो उनता रग-दंग देवकर मै मकते की हालत मे रह गई। उनके पाव तडपडा रहे थे, और वे हकला-हकलाकर वोल रहे थे। उनके मुह से जो शब्द निकल रहे थे, उनमे से वहुतो को मैं नहीं नमझ मकी। मैं जड बनी हुई पडी उनकी - . ,