पत्थर-युग के दो बुत यह दशा देख रही थी। वे एकाएक मेरे ऊपर झुक गए , लगे हलकी भापा मे प्यार-मुहब्बत की बातें करने, नौकर-चपरासियो के सामने ही। उनके मुह से तीव्र शराव की गन्ध आ रही थी, और अब मैंने पहचाना कि यह शराब की गन्ध थी-जो सदा उनके मुह से आती थी। उनकी इस अप्रत्याशित कुचेष्टा से मैं तिलमिला उठी और उनके आलिंगन-पाश मे छटकर मैंने उन्हे पीछे धकेल दिया। वे फर्श पर गिरकर अचेत हो गए। मैं घबरा गई। रामचरन और एक नौकर ने उन्हे पलग पर लिटाया । लकडी के कुन्दे की भाति वे बेहोश पलग पर पडे हुए जोर से सास ले रहे थे। कभी कुछ अस्फुट शब्द उनके मुह से निकलते थे। पलग की पाटी पर बैठी मैं उनके सिर पर हाथ फेरती वैठी रोती रही, एकात रात्रि मे । नौकर-चाकर सव सोने चले गये । मै जागती सपने देख रही थी, बचपन के सपने, मा-बाप के लाड-प्यार के सपने, बालपने के अल्हड खेलो के सपने फिर व्याह के और उसके बाद उनके सपने-प्यार के, दुलार के, अानन्द के और पहाड की उस ऊची चोटी पर चढकर, जहा से दुनिया छोटी दीखी थी, उसके सपने। अन्तस् की पाखे सपने देख रही थी और वाहर की आखे सावन-भादो की झडी लगा रही थी। हाय, अव क्या होगा? यह रूप क्या हो गया ?-~मैं मूढ बनी यही सोच रही थी, रो रही थी। सोचती रही और फिर न जाने कब सो गई। सुवह अाख खुली तो देखा, वे उठ चुके थे, वाथरूम से उनके गुनगुनाने की परिचित मधुर ध्वनि पा रही थी। मैं हडवडाकर उठ बैठी। वे बाहर पाए और हँसते हुए मेरी पोर वढे । मेरे दोनो हाथ अपनी मुट्ठी में लेकर उन्होने प्रेम से कहा, "रात मेरी तबियत एकाएक खराव हो गई थी। है न , अव ठीक हूँ। तुमको शायद रात वहुत तकलीफ रही, ऐं ? तुम्हारी पावें लाल हो रही हैं, क्या मोई नहीं?" मैं रोने लगी। रोते-रोते उनके वक्ष पर जा गिरी। हाय, मैं प्रभागिनी रात की वात क्या कह भला यह तो मेरे लिए प्रलय की रात पी~मेरे तो सभी सपने हवा हो गए थे। पर उनसे एक बात भी मुह ने न कह , ।
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