१२२ पत्थर-युग के दो बुत - स्त्री या पुरुप के सहवाम से वचित है। ग्रजी, में तो गहा ना कहने का साहम कर सकता हूं कि ऐसे स्त्री-पुरुप समाज के लिए सतरा हैं। मैने काम-सम्बन्धी स्मृतियो को, पाकाक्षानो को, विकारो को दवा- कर भुला देने की चेष्टा की। परन्तु इममे मेरी प्रान्तरित काम-वामना जागरित ही हुई। उस दिन पागलखाने के प्रधान चिकित्सक कह रहे थे कि पागलखाने के पुरुपो के वार्ड मे कोई उत्तेजित पुरुप इतना अश्लील नही वकता जितना स्त्रिया। इसका अभिप्राय तो स्पष्ट है कि उन्हें अपनी वृत्ति को दमन करने के लिए जितनी शक्ति सर्च करनी पड़ती है उतनी शक्ति उनमे नही है। नीतिशास्त्री और धर्माचार्य मनोनियमन और मयम पर चाहे जितना भी जोर डालें, और उसकी उपयोगिता की जितनी भी चाहे प्रशसा करे, पर बलात् मनोनिग्रह के दूपित परिणामो से उनको छुटकारा नहीं मिल सकता। इस समय और यथार्य मनोनियमन को पालन करने की मामऱ्या विरले ही मनस्वी पुरुप मे हो सकती है, मर्वसाधारण मे नही। भला सोचिए तो आप, मेरे-जैसा सीधा-सादा गृहस्थजो अपनी पत्नी में अनु- रक्त है, और जिसने कभी सयम के सम्बन्ध मे कुछ भी नहीं विचारा है, और स्वाभाविक कामोद्रेक मे सहवास का सुख प्राप्त कर हँसी-खुशी जीवन व्यतीत करना चाहता है-क्या पवित्रजीवी और शात नागरिक नही है क्या मेरे-जैसे व्यक्ति को किसी भी अर्थ मे दुराचारी कहा जा सकता है ? अज्ञानी जन समझते है कि कामवासना एक देह-स्वभाव है, जीवन की स्वाभाविक प्रवृत्ति है, परन्तु ऐसी बात नही है। शरीर मे कुछ गथिया है, वे अनेक है। उनमे विभिन्न प्रकार के स्राव निकलते, और रक्त मे मिलते रहते हैं, जिनसे शरीर मे जीवनी-शक्ति का स्रोत प्रवाहित रहता है, तथा जीवनी-शक्ति का संचालन भी होता है। वे सूक्ष्म नालियो के द्वारा रक्त के साथ मिल जाते हैं। इन स्रावो का मनुष्य के स्वास्थ्य पर तो खास प्रभाव पडता ही है, स्वभाव पर भी पड़ता है। इन गथियो मे से दो प्रकार के स्राव निकलते हैं। वाहर निकालने वाले . ? .
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