पत्यर-युग के दो वुत १४३ व्यक्ति का सुख-दु ख, स्नेह, भलाई-बुराई किस काम आ सकती है ? इसी- का तो परिणाम यह हुआ कि मुर्दा पति के साथ जिन्दा स्त्री को चिता पर जला डालना भी स्त्री-धर्म की चरम सीमा मान ली गई। प्राचीन युग मे लोग अपने पुत्रो-पुत्रियो की भी देवतानो के सामने वलि दे दिया करते थे। यहूदी सत इब्राहिम ने भी पुत्र के बलिदान का सकल्प किया था। अाज हमे यह वात सुनने मे अटपटी लग रही है कि कैसे पिता अपने पुत्र और कन्या की हत्या करके पुण्यार्जन करने की लिप्सा रखते थे। ऐसे अनेक राजाओ के भी उदाहरण हैं । सर्वसाधारण की घट- नामो का तो इतिहास ही नहीं मिल सकता है । यह नहीं कहा जा सकता कि उन पितायो के हृदय मे प्रेम न था। पर पुण्य का वजन प्रेम से अधिक था । और पुण्य जव धर्म का रूप धारण कर गया तो स्नेह, ममता तपा व्यक्तिगत अन्य वाते सभी पीछे रह गई। यह धर्म ही का चमत्कार या कि परम प्रात्मीय ही परम शत्रु के समान निष्ठुर वधिक बन जाते थे। समाज के ठेकेदारो से क्या मैं पूछ सकती है कि ये स्वार्थियों द्वारा अपने समाज का निर्माण करनेवालो के लिखे हुए ग्रथ धर्मशास्त्र क्यो र खासकर मैं हिन्दू पण्डितो से यह प्रश्न करूँगी, क्योकि वे अपने को परम पवित्र और दूसरे सब लोगो को अपवित्र म्लेच्छ कहते हैं। उनका दावा है कि हमारे आचारशास्त्र को छोडकर दुनिया के सभी ग्राचार-व्यवहार हीन हैं। अर्थात् इन धर्माचार्यों के अतिरिक्त और कोई मनुष्य ही नहीं है। उनका कहना है कि ये धर्मशास्त्र अटल है। इनके नियमो का उल्ल- घन नहीं हो सकता। वे नहीं मानते कि समय के साथ जीवन के नियन भी बदलते है। पूछिए इनसे कि क्या ये ग्राज अपने धर्मशास्त्र मनिष अनुसार किसी सभ्य-सुशिक्षिता स्त्री को मुर्दा पति के नाप जला नरते है इनके शास्नो मे तो अनुर-विवाह है, राक्षम-विवाह है, नियोग-विपिन क्षेत्र नतान पैदा करने का विधान है। पे इन नव धनंत्यो नो नमाज मे प्रचलित पर लें। केवल हम स्त्रियो हो पो पनिहत-धर्म निवातह, हमे ही सती-धर्म पी शिक्षा देते है ?
पृष्ठ:पत्थर युग के दो बुत.djvu/१४९
दिखावट