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पत्थर-युग के दो बुत
 

१४४ पत्थर-युग के दो बुत मैं पूछती हू, स्वार्थपरता और चरित्रगत पाप-बुद्धि अधिक किसमे है- पुरुप मे या स्त्री मे ? क्या कोई माई का लाल ऐसा धर्मात्मा ससार मे हैं जो इस बात का निपटारा करे कि सामाजिक जीवन को विशुद्ध रखने के लिए स्त्री और पुरुप मे से किसपर अधिक दृष्टि रखना उचित होगा और किसे अधिक दण्ड मिलना चाहिए। क्या यह एक पाशविक अत्याचार नही हैं कि स्त्री की तो एक रत्ती-भर भी भूल क्षमा नही की जा सकती, परन्तु पुरुषो को सोलह आना क्षमा-दान? क्या आप इसे पुरुपो की बीगामुश्ती नही समझते ? और आप क्यो इसका मूल कारण नही जानते ? तव में बताती हू-इसका कारण है कि समाज पुरुष का है, स्त्री का नही। पुरुप चाहे जितना घृणित हो—पर वह पति है । भला पति से कैसे घृणा की जा सकती है । यह तो पाप जो ठहरा | शास्त्र कहते हैं, पति चाहे जितना घृणित कुमार्गी हो, सती स्त्री के लिए वह देवता है । सन्त तुलसीदास कहते हैं- वृद्ध रोग वस जड घनहीना। अध, बधिर क्रोधी अति दीना। ऐसेहु पति कर किय अपमाना। नारि पाव जमपुर दुख नाना ।। एकइ धर्म एक व्रत नेमा। काय बचन मन पतिपद प्रेमा । कहिए, हुए न सुनकर आपके कान पवित्र । असल बात क्या है, वह आप सुनेगे ? सुनिए, पुरुष की इच्छा और अभिरुचि ही असल बात है, वही समाज की सुनीति है । अहा हा हा ' हमारा यह देश साक्षात् भगवान् का देश है। भगवान् ने यहा दस बार शरीर धारण किया था। परित्राणाय साधूना विनाशाय च दुष्कृताम्'-भला इस देश के शास्त्रो के अनुसार और किस देश का शास्त्र है ? इस देश के समान और धर्म कहा है ? नहीं है, नही है, नही है। एक युग था जब यूरोप मे तलाक-विच्छेद के सवध मे काफी सस्तिया थी। उसके कारण अव्यवस्था और लज्जाजनक वातो की वृद्धि होती थी। पुरुषो और स्त्रियो मे व्यभिचार वढता था। स्त्रियो की सामाजिक स्थिति अति हीन हो गई थी। स्त्रियो का एकमात्र काम पुरुषो की चापलूसी रह गया था। तलाक देने की स्वतन्त्रता जब स्त्री को मिल गई तो उनका विकास 1