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पत्थर-युग के दो बुत
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पत्थर-युग के दा बुत १४५ हुआ। मैं तलाक के समर्थन मे कुछ नहीं कह रही । मैं तो स्त्रियो की सामा- जिक दासता का विरोध कर रही है। पुरुप उन पर अत्याचार भी कर सकते हैं, उन्हे त्याग भी सकते हैं, पर स्त्रिया पुरुपो को नही त्याग सकती। मैं पूछती हू-क्यो नही? हर बार पूछूगी क्यो नही? अव कानून बन गया है। पर उसका उपयोग मेरी-जैसी स्त्री के लिए भी दूभर है। हजारो-लाखो असभ्य-दुर्वल स्त्रिया कैसे उस बन्धन से छुट- कारा पा सकती हैं, जिसमे पुरुषो ने उनकी आत्मा तक को वाघ रखा है ? एक बार नेपोलियन ने एक महिला से कहा था, "मैं नहीं चाहता कि स्त्रिया राजनीति मे हस्तक्षेप करे।" तव उस महिला ने जवाव दिया था, "आप ठीक कहते हैं । परन्तु जिस देश मे स्त्रियो के सिर काटे जाते है, उस देश मे यह स्वाभाविक है कि स्त्रिया यह जानना चाहे कि उनके मिर क्यो काटे जा रहे है।" किसी भी देश मे जाइए। कही भी स्त्री को उसका प्राप्तव्य नहीं चुकाया जाता । सर्वत्र ही उसके साथ अन्याय अत्याचार होता है। वह पुरुप का एक उपाग बनकर जीती है। केवल यही नहीं कि पुरुष स्त्री पर नदा अत्याचार करता आया है, सदा ही उसे न्यायोचित प्राप्तव्य से उसने वचित भी रखा है। मेरा यह अभियोग सभी देशो और सभी जातियो पर है। असल बात यह है कि बलात् सहयोग एक निकृष्ट काम है। यदि स्त्री पर यह सहयोग लादा जाएगा तो उसकी स्थिति अवश्य गिर जाएगी। म पहले ही कह चुकी हू कि धर्म की कट्टरता और अवर्म के अत्याचार न मिल- कर स्त्रियो को नीचे गिरा दिया है। धार्मिक ग्रावेश मे विरक्ति होती है। मन मे यह भाव उत्पन्न करना पडता है कि सामारिक वस्तुग्रो म हमारी कोई आसक्ति नहीं है। सासारिक वस्तुग्रो मे स्त्री भी है। अन्तत स्त्री पुरुष की जीवन-सगिनी न होकर उसकी एक नम्पत्ति, नचर की वन्तु बन गई है। फिर क्यो न पुरुप उसका मनमाना उपयोग करेगा प्राचारशास्त्र की एक प्रारनिक वात यह है कि ननुपरग्रपनी त्वानी- 2