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पत्थर-युग के दो बुत
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पत्थर-युग के दो बुत १४६ - मे व्यग्य-बाण कसती हैं-मुझे कष्ट पहुचाने के लिए, मेरा उपहास करने के लिए, मेरी ही दृष्टि मे मुझे गिराने के लिए। मगर मैं उनका कुछ नही कर सकता, तिलमिलाकर रह जाता है। मेरी उम्र ढल चुकी है। अब तो मैं पचास के पेटे मे पहुच चुका हूँ। और मेरी बदनामी यहा तक फैली हुई है कि मैं वेवी के लिए अच्छा लडका नही पा रहा हू । कोई प्रतिष्ठित परिवार का सम्भ्रान्त पुरुप अपने लडके से मेरी लडकी का रिश्ता करना नहीं चाहता, मेरी लडकी को अपनी बहू वनाना नही चाहता। मेरी वेबी निर्दोप है, सुन्दर है, बुद्धिमती है, उच्च शिक्षा-प्राप्त है । वह सव भाति योग्य वर की पानी है, परन्तु मेरे कनफित जीवन की छाया उस पर है । मेरा कलुष उस पर छा गया है। जैसे वह एक अपवित्र वस्तु हो गई है, और समाज उसे छूना भी नहीं चाहता। दहेज मे मैं एक अच्छी रकम देने को राजी हू, पर तो भी लोग मेरी वात, मंग प्रस्ताव अस्वीकार कर देते हैं। वेटी का वाप होना भी इतना फाटार है | यह मैंने कभी नहीं सोचा था। "जाते हि कन्या महतीह चिन्ता, कस्मै प्रदेयेति महान् वितकं । दत्ता सुख यास्यति वा न वेति कन्यापितृत्व खलु नाम काटम् ।।" वेवी भी अव यह बात जान गई है। उसकी विवाह की प्रायु बीतती जा रही है, परन्तु योग्य वर उसे अस्वीकार करते जा रहे हैं। इन वातो को सुन-सुनकर मेरे प्रति एक वितृष्णा के भाव उसके मन मे भरने जा रहे है । अव वह पहले की भाति मेरा खयाल भी नहीं रखती। रेना ने अब वह घृणा करती है । उसका इस प्रकार घर मे पाना और मेरे साथ रहना उने वर्दाश्त नहीं है। वह कई बार अपना विरोध प्रकट कर चुकी है। उनने होस्टल मे जाकर रहने को कितना हठ किया था। पहले माया ने वाहा था, तब तो वह इन्कार कर गई थी, पर अव बहुत हठ किया। पर अब तो वह वात ही खत्म हुई-उसकी शिक्षा नमाप्न हो गई। पर न देवता हू, इस घर मे रहना अव उसे दुभर हो रहा है । लेकिन उने कहा मिान फेकू ? क्या सडक पर फेक दू? मैं तो अपात्र को नी अब ने दे दान पर