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पत्थर-युग के दो बुत
 

१६० पत्थर-युग के दो बुत जान क्यो ? तब फिर क्या करू ? रिवाल्वर तो मेरा तैयार है, इसमे बारह गोलिया भरी हुई हैं, अब तो बस ज़रा-से साहस की आवश्यक्ता हे। नहीं, नही, निर्णय करने की भी आवश्यकता है। यह ठीक है कि मैं बेकसूर हू, पर यह न्याय-फैसला कहा हो रहा है। असल बात तो यह है कि मैं रेखा के खिलाफ कोई सख्त कदम नही उठा सकता, और मैं रेखा के विना जी भी नहीं सकता। रेखा की बदनामी कानो से सुन भी नही सकता। परपुरुप के अक मे उसे देख भी नही सकता। इसलिए मृत्यु-दण्ड नहीं, दवा है। दवा के तौर पर मुझे एक गोली खा ही लेनी चाहिए। हा-हा, मुह मे नाल डालना ठीक होगा । या कनपटी पर ही निशाना सावू ? कही ऐसा न हो निशाना चूक जाए, और मैं केवल जख्मी ही होकर रह जाऊ, मरू नही । मुह मे ठीक है, हा इसी तरह यही, बस । कौन ? कौन ? कौन द्वार खटखटा रहा है ? अरे, यह तो रेखा का स्वर है "खोलो-खोलो, दरवाजा वन्द करके वहा क्या कर रहे हो?" अरे, तुम हो रेखा ' अच्छा-अच्छा ठहरो, खोलता ह द्वार जरा ठहरो, जरा ठहरो, जरा लेकिन । यह तो एक सेकण्ड का ही काम रह गया। सत्म ही क्यो न 11 "बोलो भई, दरवाजा खोलो।" "खोलताह, खोलता ह।" चलो एक बार फिर रेखा को ग्राख भरकर देस लू । फिर यह क्षण तो चाहे जव या जाएगा। अभी इसे दराज मे रख द् । कोई बात नहीं, कोई वात नहीं । रिवाल्वर दराज रख देता हू । दरवाजा सोल देता है।