पत्थर-युग के दो बुत . ऐसी प्रतीक्षा मैंने जीवन में कभी नहीं की थी। मेरे प्राण व्याकुल हो रहे हैं । जीवन सूना हो रहा है । क्या बात है यह, मैं नही जानती हू। धरती तत्ता तवा लग रही है, पैरो के तलुए जले जाते है। कभी घर में, कभी वराडे में, कभी लान मे आकर देख रही है। कहा हैं दत्त ? उनके बिना सारी दुनिया अाज सूनी नज़र आ रही है। चाद गायव है। तारे सव झड चुके। चिराग बुझ गए। अन्धकार है-वाहर दुनिया मे भी, और भीतर आत्मा मे भी। खून की वूदें जैसे आसू बन रही हैं, अास बनकर आरमो मे उमडी चली आ रही हैं। आज सारा ही खून आसू बन जाएगा, वह जाएगा। फिर मैं जीऊगी कैसे ? अायो-पायो, प्रायो। ग्यारह बज गए। प्रद्युम्न रोते-रोते सो गया, बिना खाए-पिए। मैने उमकी पोर देखा भी नही । ऐसी निष्ठुर बन गई । मैं, मा अब कहा ह ? जब पत्नी ही नहीं रही, तो मा कहा रही? अजी, मैं तो अब नारी भी नहीं रह गई। यह मेरा दिल क्यो घटक रहा है क्या मैं मरनेवाली ह या प्रलय होनेवाली है ? प्रोफ, कितनी अवेरी रात है | कितना डर लग रहा है मुझे | क्यो नहीं पाए अभी तक माटे ग्यारह बज रहे है । ऐ । कोन? हार्न अपनी ही कार का है वे पा रहे हैं | मैं निकलकर सीढियो पर प्रा खडी होती है । पर यह क्या भारी-भारी कदम उठाते मतवाले हाथी की चाल चलते वे चले पा रहे हैं। कार से निकलकर मेरी तरफ देखा भी नहीं। अपने शयनागार मे चले गए। पौर म दौट रही हूँ। "ग्रजी, सुनो तो। कहा चले गए थे ? मुनो, सुनो। म कब से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही ह मुनो क्या ? वे ग्राकर पारामकुर्सी पर गिर गए है । हा, गिर गए हैं। दमे बैठना नहीं कह सकते। रिवाल्वर जेब से निकाल कर मेत्र पर फेक दिया है, मुझे देखकर हम रहे है। न एपदम उनके निकट चली गर्द ह । मेरी हडिया तक काप रही है । ' क्या कर डाला है तुमने ? कहा गए ये मैं मैं ? . ?" यह क्या
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