२० पत्थर-युग के दो बुत ! 11 6 रामचरण नही गया या । वह मेरी सेवा में हाजिर था । प्रद्युम्न अव तीसरे वरस मे था। उसे मैने खिला-पिलाकर सुला दिया था। मैं शात बैठी उस दीपावली से पालोकित घर मे कभी-कभी आकाश मे विखरे तारो को देख लेती थी। दिलीपकुमार पाए । पाते ही कहा, "यह क्या? क्या आज कोई मेहमान पाए ही नही ?" "ऐसा नहीं । आप तो आ गए है।" मैने एक फीकी मुस्कान होठो पर लाकर कहा । "लेकिन लेकिन उन्होने मेरे मुह की ओर देखकर अपना वाक्य अधूरा ही रखा। मैंने कहा, "आप अपने मित्र का क्या सदेश लाए है, कहिए।" "भाई साहव पाए ही नही अभी ? बडी खराव बात है। लेकिन "लेकिन क्या, कहिए न ?” "लेकिन यह तो बडी खराव बात है।" "उनकी गैरहाजिरी मे औरो का आना और भी खराब बात होती।" 'शायद, पर भाभी, क्या आपने निमन्त्रण भेजा ही नही इस बार?" "क्या पापको "नही। पर मेरी बात छोडिए। लेकिन मुझे हँसी आ गई, उस दु ख मे भी। मैने कहा, "सैर, लेकिन को छोडिए, मवके हिस्से का पाप ही खाइए-पीजिए।" "नहीं-नहीं, मे जाता ह । भाई साहब को ले पाता है किन्तु पाप ' मेरे विपय मे पाप क्या कहते है ?" "अापने भाभी, न माडी बदली न वाल बनाए।" "मुझे इसका व्यान ही नहीं रहा।" "तो वैर, अब पडे बदल डालिए चटपट, तब तक मैं भाई साहब को निये पाता है । वडी सराव वान है।" वे उठकर जाने लगे। मैने जरा कडे स्वर में कहा "नहीं, कही जाने की जरूरत नहीं है। ग्राप यही बैठ जाइए और रए मिला?" 6 " 711
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