२८ पत्थर-युग के दो बुत - 1 या चाहता, नही पाता था। आज पाच साल बाद मेरी वह अभिलापा पूरी हुई। आज उसकी आखो मे मैने वह चीज देखी जिसकी मुझे प्रतीक्षा थी। अव तो रेखा मेरी ही है। प्रोफ, कितने प्रानन्द की बात है | खुगी से मेरे खून की एक-एक बूद नाच रही है । मैं भी पीता हू, पर दत्त की भाति गधा बनकर नही। रेया के लिए वह मूर्ख शराव नही छोड सका। अब रेखा गई उसके हाथ से । लोग समझते है, विवाह करते ही औरत आ गई हमारे हाथ मे। पर में जानता ह—मी मे एक भी पति औरत को अपना नही सका । सामाजिक बन्धन बहुत पुराने हैं, बहुत मज़बूत है । उन्होने औरत को पत्नी बनाकर, पति के साथ खूब कमकर बाघ दिया है। न्यूट नही सकती वह उससे। पर इससे कुछ लाभ थोडे ही हुया। वह गले का हार न होकर सिल हो गई, जो गले मे बधी है, और जिसका असह्य भार पति को जिन्दगी-भर उठाना ही होगा। इमी से लोग गृहस्थी को एक जजाल कहते है। उसमे फसकर छटपटाते है, म्ड मुडाकर भाग पडे होते हैं। काश, ये औरत को पहचान पाते, औरत का प्यार पा मकते, और ज़िन्दगी का लुत्फ उठाते । ममाज ने औरत के तन को ही विवाह-बन्धन मे बाधा, मन को नहीं। पर ऐसा वावा कि कसाइयो को भी मात कर दिया। पर्म कहकर अधर्म की हद कर दी। मुर्दे के साथ जिन्दा पौरत को फूक दिया। शताब्दियो तक फकते रहे, और उसे मती कहकर सराहते रहे। पर इमसे क्या प्रारत का मन जीता गया? औरत, जो दुनिया की एक नियामत है, निमकी हस्ती से दुनिया रगीन बन जाती ह–एक जाने-बवाल बन गई। कितने महान्मायो ने औरत को विप की वेन कहा, उमे त्याग देने की मलाह दी, कितने सन्तो ने स्त्री-सम्पर्क को एक पाप बताया, परन्तु प्रफमोम, उम सचाई को कोई न परव मका जो प्रकृति ने हमारे मामने र दी थी। हमने औरत को अपने समाज की छाती का पन्यर बनाकर गा, उमे यादमी के गले का हार न बना सके। कहते ह, श्रीकृष्ण के नोनह हतार रानिया । पर वे नर प्रती
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