पत्थर-युग के दो बुत २६ . राधा को न पा सकी। राधा सबसे ऊपर सबसे आगे रही-कृष्ण से भी ऊपर । कौन थी वह राधा कृष्ण की पत्नी नही थी। कृष्ण उसके पति न थे, सखा थे , और राधा थी सखी । यह सख्य-भाव कितना पनपा | कृष्ण ने राधा का प्यार पाने के लिए अपनी आखे राधा के तलवो मे विछा दी, देहि मे शिरसि पदपल्लवमुदारम् । कौन पति अपनी पत्नी के तलवो मे आखे विछाता है । कौन उसके चरणो मे नतमस्तक हो उसके महावर- रजित चरण अपने मस्तक पर रख देने की उससे प्रार्थना करता है ? यह पतियो की जमात गवो की जमात है । वे पत्नियो को अपनी दाल-रोटी की भाति खाते रहते है-जज तक कि वह मर-मिट नही जाती। औरत का प्यार तो शायद ही किसी पति को मिलता होगा। मैं भी माया का पति हू। अव से नही-वाईस वरस से । पर मैंने उसका प्यार पाया, यह मैं ठीक-ठीक नहीं कह सकता । शायद नही पाया । मेरा पति होना ही इसमे सबसे अधिक वाधक हुआ। अपने पतिपने की ऐठ मे मैंने कभी उसे आत्मसमर्पण नही किया और मन की गाठ न खुलने से भी मुझे अात्मसमर्पण न कर सकी । अव वह मेरे वस की ही नहीं रही । कितना झगडा-टटा हुअा, कलह हुई, पर वात वनी कुछ नही -विग- डती चली गई । हपतो अब मेरी उससे वोलचाल बन्द रहती है। दूसरो को देखकर उसकी वाणी मे जो मृदुता और होठो पर हँसी पाती है, वह मुके देखते ही वर्षा की धूप की भाति गायव हो जाती है। मैं जानता ह प्यार उसके पास बहुत है। वह एक दिलदार औरत है। काश कि वह मेरी पत्नी न होकर सवी होती, तो जीवन का लुत्फ वह भी उठाती पोर मैं नी । पर अभिमान और मदेह की एक दीवार, जो हम दोनो के वीच बन गई है, उससे वह अपना प्यार सडक पर तो वहाती है पर मुझे नहीं देती। मै जानता ह–प्यार का भी मूल्य चुकाया जाता है। वह नमभनी है कि मैं उसके प्यार का मूल्य नहीं चुका सकता। उसना ऐना नमनना गलत भी नहीं है । इसके बीच मे वहुत-सी बातें है । कुछ कहने के योग्य नहीं है, पर एक वात तो है । तव पतियो की भाति मैं समनता ह नि एन वार वह
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