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पत्थर-युग के दो बुत
४५
 

पत्थर-युग के दो बुत ४५ उसकी पीडा तो मैं बहुत दिन से अन्तरात्मा मे अनुभव करती रही थी, परन्तु असल कारण जान न पाई थी। वह जाना तव जव राय ने अकस्मात् ही अपने प्यार से मुझे सराबोर कर दिया । देन लेन के हिसाब-किताब रखने का मुझे होश नही रहा । देन-लेन हुआ तो बहुत, पर क्या दिया, क्या लिया – यह मैं नही जानती। और जब होश आया तो मैं उनकी हो चुकी थी, अथवा वे मेरे हो चुके थे। फिर तो देन-लेन की होड मच गई। वे जितना देते उससे बहुत-बहुत गुना मैं देती । वदले मे वे भी इतना दते थे कि क्या कह । उनका प्यार मुझे अपने रग मे सराबोर करता और मेरे प्यार मे वे डुवकिया लगाते । उन दिनो विश्व के सब फूल खिल रहे थे, सव तारे जगमगा रहे थे, सारी दुनिया हँस रही थी, सव पर्वत हरे ही हरे थे, सव सरिताए कलकल निनाद करती जा रही थी । दुनिया का सौन्दर्य दुनिया मे विखरा पड रहा था और हम दोनो-मैं और राय -एकमात्र उसके दर्शक और साक्षी थे। अकस्मात् ही कुछ अनहोनी-सी होती प्रतीत हुई। मैंने भयभीत होकर देखा-मैं भद्दी होती जा रही है । फिर मैंने अनुभव किया, कोई मेरे पेट के भीतर लातें चला रहा है । मेरा मन उदास रहने लगा। पालत्य और अवसाद मेरे मन मे भर गया । मुझे न खाना अच्छा लगता न नाच- रग भाता था । मैं अव नाच नहीं सकती थी । मेरा पेट वढ रहा था जिनसे कहती वह मुंह फेरकर हँस देता । राय से कहा तो उन्होने शुभ ममाचार वताया । मैं वर्वाद हो रही थी और दुनिया ग्रानन्द मना रही थी। पार फिर वह भयानक रात आई-जब हजार-हज़ार वछिया मेरी अकेली जान पर चली । यह प्यार का मूल्य था। परन्तु मैं मूर्छित हो गई। और जव होश मे आई तो देखा- चन्दकिरन-सी एक सजीव गुडिया मेरा स्तन चूस रही थी। वाह री प्रकृति | वाहरी विडम्बना ! वाह रे प्यार | वाह री औरत ! वाह रे मर्द । तेरे ये रग-ढग | ये जादू के खेल । और मेरी वच्ची वडी होने लगी। इसके बाद जब प्यार की जमा- पूजी को मैने सभाला तो कलेजा धक् हो गया। मेरा प्यार तो अब मेरे ही ।