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पत्थर-युग के दो बुत
 

४४ पत्थर-युग के दो वुत S ही नही। जिसके एक हास्य मे सो विजलिया तडपती थी, वह हास्य मर चुका था। चेहरा राख के समान हो गया था। उसे न अब अपने वस्त्रो को सभालने की रुचि थी, न किसी बात मे चाव था, जैसे वह इसी उम्र मे जीवन से वेजार हो चुकी थी। उस वार तो वह अविक वात भी न करती थी, चुप रहती थी। बहुत पूछने पर फीकी हँसी हँसती थी और जब उमका मन बहुत व्याकुल होता था तो अपने छ मास के बालक को दुलराकर दिल बहलाती यी । यही तो था ब्याह का मूल्य, जो उसे मिला । अपनी देह देकर अवसाद, वन्धन और निराशा। मैं जितना सोचती उतना ही मेरा मन विद्रोह कर उठता । मैंने ठान लिया कि मैं विवाह करूंगी ही नहीं । किसी को मैं अलभ्य प्यार भी दू और दासी बनू । मला क्या तुक है इसमे ? अपने प्यार की कीमत मैं जान गई थी। कितने तरुण उसके एक कश के लिए लालायित हो मेरी भृकुटी की ओर देखते थे उन दिनौ । मैं सवको समझती थी और गवित होती थी। कोरा प्यार ही नहीं, शरीर भी तो था मेरा, जिसका कोई मूल्य आका नहीं जा सकता था। मैं न तो अपने प्यार को सस्ता बेचना चाहती थी। न उसे अपात्र को किसी भी मूल्य पर देना चाहती थी । सो मेरा प्यार मेरे ही आचल मे एकत्रित होता गया, और उसके वोझ से मैं कराहने लगी। प्यार तो अब किसी को देना होगा-देने से ही ऊसकी सार्थकता होगी-इस बात पर मैं जितना ही विचार करती, व्याकुल होती जाती थी। नृत्य-सगीत का मुझे बचपन से शौक है । बचपन मे मेरे इसी शौक के कारण मेरा नाम मवने रखा था 'राधा' । तव उस नाम का माहात्म्य मैंने जाना नही था । अब जाना तो राधा नाम चरितार्थ करने को मर मिटी । कैसे कह मैं अपने मन की पीर, और तभी मेरी नज़र के नीचे आये राय। जिन्दगी की एक सजीव मूर्ति, रम भरा कलश । पाखो मे ऐसा मद या कि क्या कहू उन बातो को प्राज वाईस वर्ष हो गए पर भूली नहीं हू, मूल सकती भी नहीं ह और तभी मेरे मन मे एक नई अनुभूति भी हुई। मैंने देखा, जैसे प्यार किसी को दे डालने को मैं अभी जी रही हू-वैसे ही प्यार को एक भूख भी मुझे मारे डाल रही है ।