आज यह उनका पाँचवा 'बर्थ-डे' है, शादी के बाद। जिनमें से वे केवल एक में ही घर पर हाज़िर रहे––पहले ही बर्थ-डे पर, जो शायद हमारे विवाह के पाच महीने बाद ही पड़ा था। उस समय तक तो मेरे मन का संकोच और झिझक भी नहीं मिटी थी। उस समय मेरी आयु इक्कीस बरस की थी, और उनकी बत्तीस बरस की। वे केन्द्र मे उस समय वित्तमन्त्रालय में उपसचिव थे। उनका रुआबदार चेहरा, मेघ-गर्जन-सा स्वरघोष, बलिष्ठ गौर शरीर, बड़ी-बड़ी उभरी हुई आंखें, उठी हुई नाक और धीर-गम्भीर भाव-भंगिमा तब ऐसी थी कि मैं उन्हें देखते ही सहम जाती थी। बातचीत का उनका ढंग हाकिमाना था। सब बातों में जैसे वे आज्ञा ही देते थे। नौकर-चाकर, चपरासियों की––पी॰ ए॰ सेक्रेटरी और दफ्तर के दूसरे कर्मचारियों की एक फौज सदैव उनके पीछे लगी रहती थी। एक के बाद दूसरी फाइलों के गट्ठर लेकर उनके दफ्तर के कर्मचारीगण आते, सहमे-सहमे-से उनकी कुर्सी के पीछे अदब से खड़े होते, उनके हस्ताक्षर कराते। हस्ताक्षर करते-कराते वे उनसे बीच-बीच में कुछ प्रश्न करते। प्रश्नों का उत्तर देते हुए उनके पी॰ ए॰ सेक्रेटरी की जबान लड़खड़ा जाती। उनके नेत्रों से नेत्र मिलाकर जवाब देने का किसी को साहस न होता––बहुघा उनमें से अनेकों के चेहरे पर पसीना आ जाता। चपरासी पत्थर की मूर्ति की भांति घण्टों अचल उनके संकेत की प्रतीक्षा में खड़े रहते। यह सब मैं देखती––और देखकर मैं भी उसी भांति जड़-स्तब्ध रह जाती। उनके निकट जाने, उनसे बात करने में मुझे डर लगता था। मैं घबरा जाती थी।
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