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पृष्ठ:पत्थर युग के दो बुत.djvu/५०

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पत्थर-युग के दो बुत
 

४८ पत्यर-युग के दो बुत का हॉर्न सुनते ही उनका दर्द काफूर हो जाता है। उनमे फुर्ती और चुस्ती या जाती है । वे समझती है-मैं नादान हू, कुछ समझती ही नही, पर मैं सब समझती हू । जब मैंने कहा "ममी, ये वर्मा साहब मुझे अच्छे नहीं लगते-इनसे कह दो, यहा न पाया करे," तो कहने लगी, "तू कौन हे, जो मुझपर हुक्म चलाती है । वे तेरे पास तो नही आते, मेरे पास आते हैं, हमेशा आएगे। मैं उनके विरुद्ध एक लफ्ज़ नहीं सुनना चाहती।" मैं भी लड बैठी। मैंने कहा, "सुनना क्यो नही चाहती ? मैं ही उनसे कह दूगी कि न आया करें," तो हाथ छोड वैठी। उनका मिजाज ही बिगड गया है। वे चाहती हैं कि मैं होस्टल मे जा रहू, और फिर घर मे उन्ही का राज हो जाए। क्यो रहू भला मैं होस्टल मे? उन्होने डैडी को पट्टी पढाई थी। डैडी राजी हो गए मुझे होस्टल भेजने के लिए। मगर मैंने इन्कार कर दिया। मैं नहीं जाऊगी-मैंने भी ठान ली। डंडी अब बडी देर करके घर आते है, पता नहीं कहा रहते हैं । ममी से वे खिचे-खिचे रहते है। पहले की तरह दिल खोलकर हंसते-बोलते नहीं है। और कैसे बोले । ममी का तो उन्हे देखते ही मूड खराब हो जाता है, तवियत खराब हो जाती है। डैडी रात को देर तक ड्रिक करते रहते हैं और फिर सो जाते हैं। पहले तो ऐसा नहीं होता था। घर में कितना सूनापन मा गया। मैं न मन की बात ममी से कह सकती न डैडी से । जव कहना चाहती ह तो ऐसा लगता है जैसे कोई पत्थर छाती पर अट गया है। आखिर वात क्या है? किम बान पर लडाई है? वह कभी खत्म भी होगी ? मुद्दत हुई, ईडी ने मुझे पिक्चर नहीं दिखाई। उस दिन मैंने कहा तो उदासी से बोले, “ममी के साथ चली जाना।" ममी भला मुझे साथ क्यो ले जाने लगी ? वे तो जाएगी वर्मा साहब साथ। डंडी मुझे प्यार करते हैं। वे अच्छे प्रादमी है । बहुत अच्छे है । मन की वात मैं उनसे कह सकती है। मेरी किसी बात को वे नहीं टालते । वे सदा प्रसन्न रहते है। पर पहते जैसे देर-देर तक मेरे साथ हंसते थे, अब प-३