५२ पत्थर-युग के दो बुत वैसी ही कायम है। आखिर यह भूख क्या वला है । इसपर मैंने बहुत वार विचार किया है। तन की भूख पर भी और मन की भूख पर भी। कम्युनिस्ट लोग कहते है, दुनिया के सब लडाई-झगडे तन की भूख के कारण हैं। रोटी ही सव बीमारियो का इलाज है। रोटी ही सव मुश्किलो को आसान करने का गुर है। लेकिन फ्रायड कहता है-सव झगडो की जड तन की नही, मन की भूख है, काम की भूख, यौन-क्षुधा । और सब सामाजिक, आर्थिक और व्यक्तिगत रोगो की दवा है-औरत, यौन-तृप्ति । मन की इस भूख ने मुझे बहुत सताया। आखिर मैं एक तन्दुरुस्त स्वस्थ तरुण रहा हू । मेरी रगो मे लोहू है, पानी नहीं । काम-वासना- स्त्री की भूख से तडप-तडपकर मैंने लम्वी रातें विताई है। स्त्री की अनेक कल्पित मानस मूर्तियो से मैंने सगम किया है। पर उससे मेरे मन की भूख मिटी नहीं, दबी नही, और भी भडकी है। स्वास्थ्य से काम-वासना का अटूट सम्बन्ध है । मैं जानता ह, काम- वासना शुद्ध शारीरिक उद्वेग है, मानसिक नही। इसलिए सयम इस सम्बन्ध मे अधिक उपयोगी नही हो सकता । यदि सयम या ब्रह्मचर्य का यह अभि- प्राय समझा जाए कि स्त्री-सहवास तथा काम-पूर्ति के अस्वाभाविक तरीके और सर्व-काम-सम्बन्धी विचार-भावनाओं को बलात् रोकना ही सयम या ब्रह्मचर्य है, तो वह केवल सम्पूर्ण नपुसक लोगो के ही लिए सभव है । मैने अपनी उठती हुई अायु स्त्री-विहीन ही व्यतीत की है। मैंने इस दुर्जय काम पर विजय पाने के वडे-बडे प्रयत्न किए। व्यायाम से शरीर को यफा डाला, यकावट से जहा योडी वासना कम हो जाती थी वहा शारीरिक और मान- सिक शक्ति भी कम होती थी। पर व्यायाम से ज्योही शरीर सबल हुमा, काम-वासना प्रचण्ड हो गई। ग्रोह, इस प्रचण्ड काम-वासना को दबाने में मैंने अपने जीवन के कितने सुनहरी दिन बर्बाद किए, कितने मानन्द के क्षणों को निरानन्द बनाया । उनकी बात क्या कह क्या आप विश्वास करेंगे कि उन दिनो स्त्री की प्राप्ति न होने से म प्रय-विक्षिप्त हो गया था।
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