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पत्थर-युग के दो बुत
 

पत्यर-युग के दो वुत . । करे जो खतरनाक है, या परस्त्री-गमन करे जो अनीति है। वह यदि समाज-वन्धन और नीति-वधन मे वचने की परवाह नहीं करता, तब तो कोई दिक्कत ही नही है । मैंने इस सबंध मे चिकित्सको की राय ली और उन्होने स्पप्ट कहा कि वह किसी भी स्त्री से सहवास करे । मैंने जव नीति की बात कही, तो उन्होंने कहा—चिकित्सक नीति का रक्षक नहीं है, स्वास्थ्य का रक्षक है । मैंने चाहा कि वे कोई ऐसी शामक औपच दे कि जिससे मेरी भडकी हुई वासना शमित हो जाए-परन्तु उन्होने निश्चित रूप से मुझे सचेत कर दिया कि यदि मैं ऐसी कोई प्रौपध लेने की मुर्खता करूगा तो न केवल काम-वासना, प्रत्युत शरीर की समस्त क्रियाए भी मद पड़ जाएगी और शीघ्रातिशीघ्र वृद्धावस्था मुझे घर दवाएगी। यह शरीर के लिए एक जोखिम की बात है, और इन चीजो को लगातार लेने से शरीर की और मन की स्फूर्ति नष्ट हो जाती है। निस्सन्देह कुछ परि स्थितिया है जबकि माल-छ महीने के लिए अथवा जन्म-भर तक के लिए ब्रह्मचर्य रखना लाभदायक हो सकता है, पर वह खास पास हालतो मे, खास-सास रोगियो के लिए, न कि पूर्ण स्वस्थ और बलवान् लोगो के लिए ग्राम-नियम वन जाना चाहिए । और इस निर्णय का अधिकार नीति-उप- देशको एव धर्मगुरुप्रो को नहीं है, प्रत्युत चिकित्सको को है । स्वर्ग-प्राप्ति, मुक्ति के लिए या वर्मलाभ के लिए ब्रह्मचर्य की आवश्यकता नहीं है, ब्रह्म- चर्य की आवश्यकता स्वास्थ्य-लाभ के लिए है। भूख और काम-वामना दोनो का शरीर पर समान अधिकार है। कुछ लोग कुछ समय तक उपवास कर सकते है । इमसे यह कहना कि मनुष्य के लिए भोजन की आवश्यकता ही नहीं है, मर्खता है । महवाम मे शक्ति खर्च होती है यह ठीक है, पर काम- धन्धा करने मे, चलने-फिरने और परिश्रम करने-सभी मे तो शक्ति पर्च होती है, पर उसमी प्रति शरीर स्वाभाविक रीति से कर लेता है । वीर्य को शरीर मे एकत्रित करना सम्भव नहीं है, वह नारिज होता हे । तभी उसके वनने की क्रिया ठीक-ठीक होती रहती है । वंशक काम-वासना की शक्ति का कुछ अंश दूसरे कामो मे खच दिया जा सकता है, पर वह प्री