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पत्थर-युग के दो बुत
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पत्थर-युग के दो बुत खडी होती। शारीरिक आवश्यकताए अनिवार्य है । यह वह सघर्प है जिसमे वार- बार हमे पडना पडता है । दिन-भर काम मे चकनाचूर शरीर लेकर जव रात को शय्या पर जाता तो, यद्यपि वह आराम का समय होता था, परन्तु मुझे उस एकान्त रात्रि मे अपनी सारी शक्ति काम-वेग से युद्ध करने मे जुटानी पडती थी , यद्यपि यह युद्ध मुझे चुपचाप करना पडता था और कभी-कभी विषम कठिनाई का साम्मुख्य भी होता था। कोई भी अस्वाभा- विक चेष्टा नितान्त मूर्खतापूर्ण थी। और वेश्या-गमन स्वास्थ्य और प्रतिष्ठा के लिए खतरे की चीज़ यो । तव इम काम-शत्रु को दमन करने का क्या मार्ग हो सकता था ? इस निर्दय शत्रु का इलाज स्त्री थी, जो मुझे प्राप्त न थी । कभी-कभी प्रकृति सहायता करती थी, पर वह यथेष्ट न थी। इस दुर्दम्य काम-पीडा को शान्त करने के लिए एक आदर्श साथी की आवश्यकता थी, जो इस आनन्द के आदान-प्रदान मे वरावरी की प्रतिस्पर्धा करे और जिसे मैं अपने आपको सौप दू, जो न केवल जानन्द की अपितु सौभाग्य की भी बात थी। परन्तु मुझे ऐसा साथी नही मिला । और मेरी जीवन की दुपही इन कठिन काम-सग्राम मे लडते-लडाते ही कटी । मेरी जीवन की इस कठि- नाई और दयनोयता का कोई कहा तक अनुमान लगा सकता है भला मैंने ब्रह्मचर्य और सयम की चर्चा की है। दोनो का ही मैंने नहारा लिया पर लाभ कुछ न हुया । यह कहना कि ब्रह्मचर्य से क्तिी हालत में कोई हानि नही है, सरासर अवैज्ञानिक है । मैंने तो देखा कि ब्रह्मचर में पालन मे बेहद शारीरिक शक्ति खच हुई और उतते नारय ने लान का वेग ही रुक गया, और मैं सदा के लिए म्लान और निलज हा गया। यह एक बडा ही पेचीदा सवाल है, जो मेरे-जैसे लाखो-कराटो तन्ना के सामने आता है कि अविवाहित व्यक्ति को कानेच्या हाने पर उनकी प्रति किस प्रकार करनी चाहिए । यह सवाल पारान-विधान की दृष्टि से मैं कर रहा हू । क्या वह स्वतनो रे जो हानिकारन है, । वामनन