पत्थर-युग के दो वुत ६७ - पतिव्रत-धर्म के बडे-बडे माहात्म्य गढे गए । वडे-बडे धर्माचार्यों ने, समाज के निर्माताओ ने पतिव्रत के एक से एक बढकर क्रूर नियम वनाए, जिनमे एक पति के मर जाने पर उसकी अनेक स्त्रियो को जिन्दा उनकी चितायो पर फूक दिया गया, और उन्हे सती कहकर लोकोत्तर पतिव्रता की डिग्री दी गई। "यह पतिव्रत-धर्म केवल स्त्रियो ही के लिए था, मर्दो के लिए नहीं। मों के लिए चाहे जितनी पत्निया व्याहलाने और विना व्याह किम चाहे जितनी दासियो, लौडियो, रखेलियो से सहवास करने की उने टूट थी। तिसपर भी उसके लिए वेश्याग्रो के बाजार थे, जहा खुने-बजाने नाग- विलास का सौदा होता था। तर औरत मर्द की दासी थी,मर्द उसका स्वामी यान नोमनी, परलोक मे भी। समाज मदों का या, धन-सम्पत्ति, घर-पार का वही धामी था, वह ज्ञानवान था, सामथ्र्यवान था। उसके लिए दुनिया मुनी पी। मी तब उसके लिए उसके भोग की एक सामग्री पी। उस समपत्निया यह बात करती थी कि उनका पति दूसरी स्त्रियो से सहवास करे और वे उमन यां न करे । ऐसे शास्त्र-वचन भी मैंने देखे हैं, जहा सोतो ने ईर्षा न मरना नी पतिव्रत-बम का एक अग माना गया है। जहा कोटी पनि योन्या पर लादकर वेश्या के यहा ले जाकर उसके सहवास की सुविधा करना पनिता का धर्म माना गया है। तुम क्या मुझसे भी ग्राज वही ग्रागा करते हा कोई भी पुरुप ग्राज की स्त्री ने यह पाया कर नरना है "किन्तु माया, सुनो तो ' ठहरो जरा, पहले मुझे ही अपनी वान वह लेन दो। र पारा पा-मामन्ती युग, जब पति पनी के माता-पिता-परिन्नो गे माता उतारकर हरण करते और उन्ह न पतियो नी मरिनी - पडता पा । जैसे वे रहती थी, उन्हें प्रेम करनी पी, हम मान्नानी :- इन बातो पी कल्पना भी नहीं पर नकली। नोनी की --- चारिणी है, सनी बिन-नापी है । नर-दर ने न. - - "