पत्थर-युग के दो बुत ७३ पति-पत्नी -सम्बन्ध जुडने पर अपने-आप ही जुट जाता है । यह या परिवार- सम्बन्ध, जहा मेरा एक गौरवपूर्ण स्थान था, जहा में केन्द्र मे वैठी थी। किन्तु अब ? वर्मा से अभी मेरा विवाह-सम्बन्ध नही हुअा। अभी इस काम मे छ मास लग जाएगे। लोक-मर्यादा ही कुछ ऐमी है। परन्तु इस समय का मेरा जीवन तो देखो, कैसा विचित्र बन गया है कहन को अव न राय मेरे पति रहे, न वर्मा पति है। दोनो दुनिया की नजर मे मेरे मित्र है। पर दो भिन्न प्रकार के मित्र । एक वर्मा है, जिनने म दुनिया की नज़र छिपाकर मिलती हू, मित्रता के सम्बन्ध को प्रतिकात करके आगे होनेवाले सम्बन्ध की आशा और भरोसे पर। दूसरे हे गप, तो जीवन-भर अव तक मेरे प्रगाढ साथी रहे-योर अव बिछुड गए, निना फिर मिलने को जी भटकता है, हृदय हुमकता है, पुरानी बाते बाद प्राती है, रह-रहकर मन मे हूक उठती है। पर कसकर मन को गेरती :- उधर से मन फेरती हू, पर यह मैं ही जानती ह कि इन दोनो ही मित्रा ने दो भिन्न व्यवहार-राय से मुह फेर लेना, जिनके साथ एक होकर नीपन बीता और दूसरे के निकट जाना, जो अभी मेरे लिए नय है, ठीक-बीर तान पहचाने नही है-कितना कठिन है, कितना दुस्नह है । अच्छा प्यार ही की वात लो। मुझसे ज्यादा प्यार के वालविर प को कौन जान सकता है | मैं औरत ह, पत्नी रह चुकीह रे बार्दन वन, और माह उन्नीस वरन से-प्यार की यह त्रिवेणी नरे कोरे दा न ही नही, अात्मा मे, चेतना में व्याप्त है। अव तक मै एक सच्ची औरत, सच्ची मा और नच्ची सन्नी पी- केवल प्रेम के माध्यम ने । प्रेम ही मेरी इन तीनो नवादलो ना मन्च विन्दु या और लगातार वाईन वपो तक बनेको नाटिनो पना जाकर मेरा यह प्रेम एक पाट पास्पा वन पा पा-'- गेना ना और जवर्दस्त माध्यम कि जिस पर न नमननी है, प्री नानवतान रह सकती है। परन्तु अव में एन नई बात नोच ही इ, जो नर तन मे दिन ने
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