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पत्थर-युग के दो बुत
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पत्यर-युग के दो बुत - मनो। खाने-पीने का। समी वन्दोवस्त तो ममी करनी थी। जब उनके ग्राफिम जाने का वक्त होता था, वे उनके चुने कपडे निकालकर रख देनी थी टाई अपने हाथ से वाधती थी। नया रूमाल तहा कर जेब मे रख देती थी, और जैसे रस्मी मे बधी हो, इस तरह विची हुई दरवाजे तक चली ग्राती यी। और जब उनके वापस घर पाने का समय होता था, उसने प्रथम ही गर्म -ताजा नाश्ता तैयार करती थी। मेरे कपडे बदलती थी। वचपन ही से वे मुझे गुडिया की तरह सजाकर उनके मामने नाती थी। वन, एक उन्ही की बात उनकी जवान पर रहती यो । सो अब वे दम तरह चली गई निर्मोही होकर मुझे घर सूना लग रहा है। पापा ने वहा भी मोईदार तो। दाई भला क्या करेगी ? अव तो पापा की सब जिम्मदारी मेरी पर है। पर ममी-जैसी फुर्ती, चुस्ती और सुघडाई में रहा ने लाऊ । तो लाड-प्यार मे मुझे मिट्टी कर दिया था। पर म पापा का नतास तरह निरीह-निराश्रित कैसे छोड सकती है । मैं उन्हें ग्राफिन नेजरर सातित जाती है, और पाकर सबसे पहले उनके लिए नास्ता बनानी है। उनकी हर वात का पूरा ध्यान रखती है, पर फिर भी उह पहन की नातिना नहीं सकती, उनकी उदासी दूर नहीं कर सकती। ग्राज छुट्टी पी। पापा कही दौर पर गाए है। परना नाग। टान मैं भी ज़रा टीली पड़ी हुई थी। ममी की याद कर रही पी ग्रार कनी- कभी एकाध यान् या जाता था। उन पोही पोछ लेती थी।वाही न के पन्ने पलट रही थी। अकस्मात् ही ग्रावर उन्होन नुने प्रपन जन- मे वाध लिया। पहले तो मैं घबरा गः। बाद में उन्ह देवा । नना पिया । परन्तु उन्होन मुने होटा नहीं। गोद म निपटी रही न बच्चे का गेरर मा वंटनी है । कितना अच्छा रगा मुो कमान उन्होने हमार कहा, यती बेटी विनती पादतरीनी: मन भी हमने गा बना। "सच मनी नी नहीं ग्रापती ।"