१४ पत्थर-युग के दो बुत पडी देखता हू तो मुझे कोर पा जाता है। पर चिडने प्रौर को करने मे क्या होगा? वारीकी मे उसका सही कारण द ढना होगा। मने उमे प्रोपध दी, उमने उमे नहीं खाया। एक अवना की नजर मुझ पर डाली। वह कहती है कि वह ठीक है, रोगिणी नहीं है । म भी अब यही समझता हूँ। नव उसकी इस घोर विरक्ति का कारण क्या है ? यदि वह रोगी नहीं है तो वह बेवफा है ? किसी दूसरे पुरुप को प्रेम करती है ? यह तो बडी भयानक बात है। इसके तो विचार-मात्र से रक्त बोलने लगता है। भला कहीं रेवा-जैमी स्नी बेफा हो मकती है ? क्या मैने उमका प्रेम देसा नहीं ? निष्ठा देगी नही ? प्रोफ, वे मब बाते याद ग्राती है तो मन कैमा हो जाता है 'पुरा हो इम शराव का, इमी ने उसे मुझसे दूर कर दिया । परन्तु क्या सचमुन मेंने रेखा को यो दिया? क्या अब वह पहली- मी रेगा नहीं रही? यह तो विश्वास करने को मन नहीं करता। नहीं, नही, तुक भी पात नहीं है। व्यर्थ ही परेशान हो रहा है। उसके मन मे गुन्मा है, वह दूर हो जाएगा। बडा अन्याय हे कि मै उसपर वेवफाई का मन्देह करता है । यह मेरे मन का ही दोप है। मुझे प्राशा है, मब ठीक हो नागा। मुझे, उममे मृदु व्यवहार करना चाहिए। मुझे दयालु हाना चाहिए। म उसे फिर मे प्रसन्न कर लूगा पोर मर ठीक हो जाएगा। यदि वह रोगिगी है तो अच्छी हो जाएगी। यदि वह कुछ है तो प्रमल हो जाएगी। उसे खोकर म जिन्दा नहीं रह सकता। म उमे फिर में प्राप्त कगा। रेवा-नमी म्यी को पाकर कोई भी पुका निहाल हो माता है। पोर रेवा मेरी है, यह में क्यो चार-बार मन रहार वह मेरी है, मेरी रहेगी-प्रत्येक मय पर
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