६ पदुमावति । २ । सिंघल-दीप-बरनन-खंड । [३६ - ३७ - सभा जुटौ (जूरौ), अर्थात् लगी, है, (और उस चतुः-शाला पर दृष्टि पडने से यही जान पडता है), जानी इन्द्र के आसन (बेठक) को पुरी (अमरावती) पर दृष्टि पडती है॥ सब गुणौ, पण्डित, और ज्ञाता (विज्ञ) हैं। सब के मुख में संस्कृत की बात है, अर्थात् सब कोई संस्कृत बोलता है। श्राहक (हाहा नाम का गन्धर्व) पन्थ (पथ = -राह) को बनाता है, जानों अनुपम शिव-लोक है ( वह सिंघल नगर)। और वहाँ घर घर पद्मिनी रानी हैं, जो अपने रूप के दर्शन से, अर्थात् रूप को दिखा कर, सब को मोह लेती हैं (मोहती हैं ) ॥ ३६ ॥ चउपाई। पुनि देखी सिंघल कइ हाटा। नउ-उ निद्धि लछिमी सब पाटा॥ कनक हाट सब कुंकुहि लोपो। बइठ महाजन सिंघल-दौपी॥ रचहिँ हतउडा रूपहि ढारौ। चितर कटाउ अनेक सँवारी॥ सोन रूप भल भाउ पसारा। धवर-सिरौ पटवन घर-बारा ॥ रतन पदारथ मानिक मोती। हौरा पर्वंरि सो अनवन जोती॥ अउ कपूर बेना कसतूरौ। चंदन अगर रहा भरि पूरौ ॥ जेइ न हाट प्रहि लौन्ह बेसाहा। ता कहँ आन हाट कित लाहा ॥ दोहा। हाटा = हतउडा कोई करइ बेसाहना काहू केर बिकाइ । कोई चलइ लाभ सउँ कोई मूर गवाँइ ॥ ३७॥ -हाट = हट्टा = बजार ॥ कुंकुहि= कुंकुमा से = एक प्रकार को रोरौ से । हथौडा ; जिस से मोनार-लोग श्राभूषण बनाते हैं। रूपहि = रूप को, अर्थात् खरूप को। चितर चित्र । कटाउ = कटाव = काट काट कर, अनेक फूल पत्ते को रचना। मोन = मोना = स्वर्ण। रूप = रूपा =रौप्य = चाँदी। पसार = प्रसार धवल-श्री = उज्ज्वल शोभा। पटवन = पट-बन्ध = पर्दा । परि = डेवढौ। अनवन = जो बनने के योग्य न हो, अर्थात् अनुपम, वा अन्य अन्य = अनेक। जोती प्रकाश । बेना = खस-तृण । अगर = अगुरु, एक सुगन्धित काष्ठ । बेसाहा = खरौदा । कित = कुतः = कहाँ। लाहा = लाभ ॥ बसाहना खरौद को वस्तु । मूर - मूल-धन ॥ = फैलाव 1 धवर-सिरी
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