सुधाकर-चन्द्रिका। चउपाई। सिंघल नगर देख पुनि बसा । धनि राजा असि जा करि दसा ॥ ऊँचौ पर्वरी ऊँच अबासा । जनु कबिलास इंदर कर बासा ॥ राउ राँक सब घर घर सुखौ। जो दौखइ सो हँसता-मुखौ ॥ रचि रचि साजे चंदन चउरा । पोते अगर मेद अउ गउरा ॥ सब चउपारिन्ह चंदन खभा । ओउँधि सभा-पति बइठे सभा ॥ जनउँ सभा देओतन्हि का जूरी। परइ दिसिटि इंदरासन पूरी ॥ सबइ गुनी पंडित अउ ग्याता। संसकिरित सब के मुख बाता ॥ दोहा। अाहक पंथ सँवारई जनु सिउ -लोक अनूप। घर घर नारी पदुमिनी मोहहिँ दरसन रूप ॥३६ ॥ पवरो= पौरी= डेवढी। अबामा = श्रावास निवास स्थान । राँक = रङ्क = दरिद्र चउरा = चौतरा । मेद = कस्वरौ । गउरा = गोरोचन । चउपारि = चतुः-शाला = बैठक, जिम में चारो ओर खुलता रहे। दातन्हि = देवताओं। ग्याता = ज्ञाता। संसकिरित- संस्कृत ॥ आहक = हाहा = गन्धर्व-विशेष ॥ फिर सिंघल-नगर बसा देखा गया है। ( उस बमने को देख कर यही कहा जाता है, कि) धन्य वह (गन्धर्व-सेन ) राजा है, जिस की ऐसी दशा है, अर्थात् भाग्योदय है ॥ (जिस स्थान पर राजा रहता है), उस को डेवढी (दरवाजा) ऊँची है, और निवास- स्थान भी ऊँचा है। ऐसा ऊँचा निवास स्थान, जानों इन्द्र का वाम-स्थान कैलास है ( दून्द्र से यहाँ महेश से तात्पर्य है, क्योंकि महादेव का वास-स्थान कैलास है) ॥ क्या राजा, क्या रक, मदा (अपने ) घर घर सुखी हैं, और जो देख पडता है, सब हमता- मुखौ ( प्रसन्न-वदन) है॥ सब कोई रच रच कर चन्दन का चऊतरा सजे हैं, अगर, कस्तुरी और गोरोचन (उस चऊतरे में) पोते हैं ॥ जितने चउपार (चतुः-शाला) है, सब में चन्दन के खम्भे लगे हैं, जिन में (खम्भे में) अोठंघ (लग ) कर सभा में (चतु:- शाला में ) सभा-पति लोग बैठे हैं ॥ (उस घड़ी ऐमो शोभा है), जानों देवताओं की - %3D
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