३८-३६] सुधाकर-चन्द्रिका। - . - ॥ कुच (स्तन) जानों दो पासे हैं, जिन को खभाव-हौ से अंचल ढार देते हैं, अर्थात् मैदान में फेंक देते हैं। कवि का यहाँ पर ऐसा श्राशय है, कि पथिकों को लुभाने के लिये वेश्याय स्वभाव-ही से क्षण क्षण पर जो अञ्चल कुच पर से हटा लेती हैं, दूस से पथिकों के दृष्टि-गोचर वे कुच हो जाते हैं, सो मानों अंचल ने पथिकों के सामने कुच-रूपी पासाओं को फेंक दिया, कि यदि खेलाडी हो, तो आश्रो, और इन पामों से खेतो ॥ तिन्ह पामों से कितने खेलाडी हार गये हैं । और हाथ झाड कर निरास हो कर चले जाते हैं, अर्थात् ऐसे जादू के पासे हैं, कि उन से, यदि कोई खेले, तो वेश्याओं से प्रत्यक्ष में हार जाय। जुत्रारौ हार जाता है, तब हाथ को साफ करने के लिये, झाड देता है, वस्तुतः वह झाडता नहीं किन्तु मन में पछता कर हाथ मलता है जब तक कमर में गठरी (रुपये पैसे को) रहती है, तब तक चटक मटक से टोना सा लगा कर, वा दूत को लगा कर, मन को हर लेती हैं। और जब निर्धनी हो जाता है, तब ऐसी चेष्टा करती हैं, जानों न कभौं को भेंट न पहिचान है। दूम लिये वह बेचारा उठ कर, बटाऊ हो जाता है, अर्थात् अपने कर्तव्यता को शोचता, वहाँ से चलता होता है । यहाँ दौसा के स्थान में, तुक मिलाने के लिये, यदि कवि ने देसा किया हो, ऐसा मानो, तो पहली चौपाई का अर्थ 'फिर श्रङ्गार हाट को धन्य, अर्थात् विचित्र, देखा,' यह करना चाहिए ॥ सातवौं चौपाई में 'तिन्ह पासा' का तिन (वेश्याओं ) के पास (निकट) कितने खेलाडी हार गये, यह भी अर्थ कर सकते हो ॥ ३८ ॥ चउपाई। लैइ लैइ फूल बइठि फुलवारौ। पान अपूरब धरे सँवारी ॥ साँधा सबइ बइठु लेइ गाँधी । बहुल कपूर खिरउरौ बाँधौ ॥ कतहूँ पंडित पढहिँ पुरानू । धरम पंथ कर करहिँ बखानू ॥ कतहूँ कथा कहइ किछु कोई। कतहूँ नाँच कोड भल होई ॥ कतहुँ छरहटा पेखन लावा । कतहुँ पखंडी काठ नचावा ॥ कतहूँ नाद सबद होइ भला। कतहुँ नाटक-चेटक-कला ॥ कतहुँ काहु ठग बिदिशा लाई। कतहुँ लेहिँ मानुस बउराई ।
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