पदुमावति । २ । सिंधल-दीप-बरनन-खंड । [80 9 झाँकने से जाँच कंपने लगती है ॥ अगम्य और असूझ उस खन्धक को देख कर, ऐसा डर (भय) उत्पन्न होता है, कि वह भय (शरीर) खाने लगता है। (यदि) कोई उस में पड जाय (गिर जाय), तो वह सातवें पाताल में चला जाय, अर्थात् खन्धक को गहराई सात पाताल तक चली गई है। अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल, और पाताल ये सात नौचे के लोक हैं, जिन में सातवाँ पाताल है (भागवत, पञ्चम-स्कन्ध, २४वौं अध्याय के ७वे श्लोक को देखो) । उस गढ में नव खण्ड हैं, और बडी दुर्गम (बाँकी) नव डेवढी हैं । नवो डेवढियों पर जो चढ जाय, वह (जानों) ब्रह्माण्ड पर चढ गया, अर्थात् वह गढ नव-महला है, प्रत्येक महल पर चढने के लिये एक एक डेवढी है। नवो को लाँघ कर, तब ऊपर पहुँचना होता है, ऊपर पहुंचने पर जान पड़ता है, कि ब्रह्माण्ड के ऊपर पहुँच गये। सिद्धान्त शिरोमणि में भास्कराचार्य ने लिखा है कि- कोटिघ्नैर्नखनन्दषट्कनगभूभूभृगुजङ्गेन्दुभि १८७१७६८२ ० ० ० ० ० ० ० ० ? तिःशास्त्रविदो वदन्ति नभसः कक्षामिमां योजनैः । तद्ब्रह्माण्डकटाहसम्पुटतटे केचिजगुर्वेष्टनं – इत्यादि अर्थात् जिस ब्रह्माण्ड के भीतर पृथ्वी, ग्रह, नक्षत्रादि, और सब लोक हैं, वह दो कराहे के सम्पुट ऐसा है, जिस का घेरा १८७१७६८ २ ० ० ० ० ० ००० योजन है। वह कोट (गढ) सोने का है, और उस में कई प्रकार के सौसे लगे हैं । उस से उस को ऐसौ शोभा है, जानों नक्षत्रों से भरी बिजली देख पडती है ॥ सुवर्ण बिजली, और मौसे नक्षत्र के सदृश समझो। उस गढ को लङ्का से भी ऊँचा देखा । निरख नहीं जाता, निरखने से (निरीक्षण करने से) दृष्टि और मन थक जाते हैं ॥ (उस गढ की सब रचना ) न हृदय में समाती, और न दृष्टि में समाती। जान पडता है कि गढ नहौं, सुमेरु पर्वत खडा है। कहाँ तक उस को उँचाई कहूं, और कहाँ तक उस के फेर (परिधि) का वर्णन करूँ | कवि का श्राशय है, कि जब वह मन और दृष्टि से बाहर है, और उन में समाय नहीं सकता, तब कहाँ तक उस का वर्णन हो सकता है ॥ सुमेरु सुवर्ण का पर्वत है, और उस के चारो ओर नक्षत्र घूमती हैं, इस लिये सुमेरु का उपमा देना योग्य है ॥ ३६-४० दोहे में गावने-वाले अपने मन से कई पद मिला दिये हैं, जिन को मैं ने निकाल दिया है, क्योंकि छन्दो-भङ्ग दोष II पडता था ॥४०॥
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