४३-४४] सुधाकर-चन्द्रिका। 1 भण्डारा नहीं खाली होता था। जब वह खा लेती थी, तब भण्डारा खाली हो जाता था ( महाभारत, वनपर्व, ३ अध्याय का ७२-७४ श्लोक देखो) । कवि का अभिप्राय है, कि दोनों नदियों में भी द्रौपदी का मा धर्म है, कि सब लोग नौर और खौर को यथेच्छ रात दिन पौत्रा करते हैं, परन्तु घटती नहौँ । (नदियाँ ज्याँ की त्यों उन से भरी रहती हैं ) ॥ और एक मोती के चूर्ण का बना कुण्ड है, जिस का कौचड कपूर और पानी अमृत है। परन्तु (जैसे सब के लिये दोनों नदियाँ सुलभ हैं, वैसा यह कुण्ड नहौँ)। इस का पानी केवल राजा-ही पौता है। इसी कारण जब तक जौता है, वृद्ध नहीं होता ॥ तिस कुण्ड के पास एक कञ्चन (सोना) का वृक्ष है, (उस को ऐसी शोभा है), जैसे राजा इन्द्र के यहाँ कैलास में कल्प-वृक्ष शोभित हो ॥ यहाँ भी केलास से अमरावतौ समझना चाहिए । उस वृक्ष का मूल (जड) पाताल, और शाखा वर्ग तक (चली गई ) है। ऐसी अमर-करने-वाली वेलि (वेलि फल) को कौन पावे और कौन चकले, अर्थात् अत्यन्त काठिन्य से कोई भाग्यवान् पावे तो पावे ॥ उस वृक्ष के पत्ते ( पात= पत्र ) चन्द्रमा, और फूल तारा-गण हैं, (दूमौ कारण रात को) जहाँ तक शहर है, तहाँ तक उमौ से उजेला होता है ॥ कोई तपस्या कर के (तपि) उस फल को पाता है। उस फल को वृद्ध खाय, तो उस का भी नया यौवन हो जाय ।। उस अन्त भोग (फल) को सुन कर (कितने ) राजा भिखारौ हो गये, अर्थात् राज-पाट छोड दिये। जो ( उस फल को) पाया, वह अमर हो गया, (फिर ) उस को न कुछ व्याधि हो और न रोग ॥ यहाँ व्याधि से शरीर के बाहर का रोग, और रोग से आधि, अर्थात् शरीर के भीतर का रोग, समझो ॥ ४३॥ चउपाई। गढ पर बसहि भारि गढ-पती। असु-पति गज-पति भू-नर-पती सब क धउरहर सोनइ साजा। अउ अपने अपने घर राजा॥ रूपवंत धनवंत सभागे । परस-पखान पउरि तिन्ह लागे॥ भोग बिरास सदा सब माना। दुख चिंता कोइ जनम न जाना ॥ मँदिर मँदिर सब के चउपारी। बइठि कुऔर सब खेलहिँ सारी॥ पासा ढरइ खेलि भलि होई। खरग दान सरि पूज न कोई ॥ भाँट बरनि कहि कीरति भली। पावहिँ घोर इसति सिंघली । = -
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