७४ पदुमावति । २ । सिंघल-दौप-बरनन-खंड । लाग खंभ मनि मानिक जरे। जनु दौथा दिन पाहिँ बरे ॥ देखि धउरहर कइ उजियारा। छपि गा चाँद सुरुज अउ तारा ॥ दोहा। सुने सात बइकुंठ जस तस साजे खंड सात । बौहर बौहर भाउ तस खंड खंड ऊपर जात ॥४८॥ गिलावा = गारा। उरेह = उल्लेख = चित्र = मूर्ति। कटाउ = कटाव। बौहर बौहर = अलग अलग। भाउ भाव ॥ राज-मन्दिर (राजा का मन्दिर) कैलास के ऐसा मजा है। उस को भूमि (नौचे का तल ), और छत (ऊपर का भाग = आकाश ), सब सोने को है॥ ( उस मन्दिर में ) सात खण्ड (सात-मजिला ) का धरहरा (ध्रुव-हर ) सजा है। वही ऐसा राजा है, कि ऐसा ( धरहरा) बना सकता है ॥ वह धरहरा हौरे को ईंट, और कपूर के गारे से बना है, और नगों को लगा कर उस धरहरे को ले कर स्वर्ग तक लगा दिया है, अर्थात् बडा ऊँचा बनाया है। जितनी हाथी, घोडे, पशु, पक्षी, देवता, इत्यादि को मूर्ति हैं, सब उस में उरेही हैं (खाँची हुई हैं), और उन में (वे-हौ) तरह तरह के (जिम जिस अङ्ग में जिस जिस वर्ण के उचित है ) नग लगे हैं ॥ (उस धरहरे में) और भी अनुपम वा अनेक (३७वे दोहे को ५वौं चौपाई को देखो) भाँति के कटाव भये हैं, जिन कटाव से पाँतौ पाँती में चित्र होते गये हैं ॥ माणिक्य-मणि (लाल मणि ) से जडे खंभे लगे हैं । (उन से ऐसा प्रकाश है), जानौँ दिन में अच्छी तरह से दीया (दोप) बरते हैं। धरहरे का प्रकाश (उँजेला = उँजिबारा) देख कर, चन्द्र, सूर्य, और तारा छिप गये, अर्थात् लज्जित हो कर कभी चन्द्र, कभौं सूर्य, और कभी तारे अस्त के बहाने मुंह छिपा लेते हैं । जैसे मात वैकुण्ठ सुने जाते हैं, तैसे-हो उस धरहरे में सातो खण्ड सजे हैं, और तैसे-हो खण्ड खण्ड में ऊपर जाते अलग अलग भाव है, अर्थात् सातो खण्डों में भिन्न भिन्न सजाव, और भिन्न भिन्न ( देखने से ) श्रानन्दानुभव होता है, जैसा कि मातो वैकुण्ठ में है। (यहाँ वैकुण्ठ से भूर्लोक, भुवर्लोक, खर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपो- लोक और सत्यलोक समझो, न कि केवल विष्णु का स्थान, जो कि एक-हौ है ) ॥
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