80-82] सुधाकर-चन्द्रिका। ७५ . चौथौ चौपाई के उत्तरार्द्ध में, 'नग लागेउ वे-हौ' के स्थान में; लेखक-प्रमाद से 'नग लाग उवेहो' यह अशुद्ध पाठ समझना चाहिये ॥ 'उबेहो' कोई हिन्दी. विशेषण शब्द नहीं है। यदि उबहना (= पानी को उलचना) क्रिया से भृत काल में उबाही के स्थान में तुक मिलाने के लिये उबेही मानें, तो अर्थासङ्गति होती है ॥४८॥ चउपाई। बरनउँ राज-मँदिर रनिवाँस्व । अछरिन भरा जानु कबिलास्तू ॥ सोरह सहस पदुमिनी रानी । एक एक तइँ रूप बखानी ॥ अति सु-रूप अउ अति सु कुवाँरौ। पान फूल के रहहिं अधारी॥ तिन्ह ऊपर चंपावति रानी । महा सुरूप पाट परधानौ । पाट बठि रह किए सिँगारू । सब रानी श्राहि करहिं जोहारू ॥ निति नंउ रंग सु-रंग मैं सोई। परथम बयस न सरबरि कोई ॥ सकल दोप मँह चुनि चुनि आनौ। तिन्ह मँह दीपक बारह बानी दोहा। कुवरि बतीस-उ लक्खिनौ अस सब माँह अनूप । जावत सिंघल-दीप मह सबइ बखानहिँ रूप ॥ ४६॥ इति सिंघल-दौप-बरनन-खंड ॥२॥ रनिवासू = रनिवास = रानियों का निवास स्थान । अछरिन= अछरौ का बहु-वचन, अकरी = अप्सरा। पदुमिनौ = पद्मिनौ। सु-कुवाँरौ= सु-कुमारी। अधारी = आधार । चंपावति = चम्पावती। परधानौ = प्रधान । जोहारू = जीव हार, जीव हार = हे हार जौव, अर्थात् हे गले के हार श्राप जोर्वे, यही जीव और हार दो संस्कृत शब्द मिल कर हिन्दी का यह जोहार बना है, जिस का अब प्रणाम अर्थ है। में = में = मह । परथम = प्रथम । बयस = वयः = अवस्था। बारह बानो = वारंह वर्ण = बारहो सूर्य के वर्ण, अर्थात् द्वादशादित्य को कला । कुर्वरि - कुमारौ। लकिवनौ = लक्षणौ ॥ राज-मन्दिर में जो रनिवास है, उस का वर्णन करता हूं। जानों अपराओं से भरा कैलास है | उस रनिवास में, सोरह इजार पद्मिनौ रानी हैं, जो कि एक से एक -
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