८० पदुमावति । ३ । जनम-खंड । [५१ दोहा। - इते रूप भइ कनिश्रा जहि सरि पूज न कोइ । धनि सो देस रुपवंता जहाँ जनम अस होइ ॥ ५१ ॥ कनिश्रा = कन्या = लडको। किरिनि= किरण । करा = कला। इते = इयत् = इतने। पूनिउँ= पूर्णिमा। खौन = चौण । अमावस = अमावस्या । दुइज = द्वितीया । नई = झुक गई नम्र हो गई = नय गई। निहकलंक = निःकलङ्क = वे दाग का ॥ जब ) दश महीने हो गये और घडी (जन्म की घडी) पूरी हुई, उस समय पद्मावती कन्या ने अवतार लिया (जन्म लिया ) ॥ (उस को ऐसौ कान्ति थी) जानों सूर्य के किरण से काढी गई है, अर्थात् किरणों-ही से बनाई गई है। उस के श्रागे सूर्य को कला (तेज) घट गई, और वह ( कन्या ) ( उस से ) बढ गई ॥ रात्रि में (जिस घडो उस ने जन्म लिया) दिन का प्रकाश हो गया, अर्थात् उस को कान्ति से दिन हो गया। सब जगह कैलास मा उँजिबार हो गया, अर्थात् कैलास को ज्योति जो जग में आई, तो सब जग उज्वल हो कर कैलास हो गया ॥ इतने रूप को वह मूर्त्ति प्रगट हुई कि (उसे देख कर ) पूर्णिमा का शशि जो है सो क्षीण हो कर घटने लगा ॥ यहाँ तक घटा कि घटते घटते अमावस्या तिथि प्रा गई (अमावस्या को चन्द्र को सब कला नष्ट हो जाती है), फिर दो दिन तक (अमावस्या और प्रतिपदा इन दो दिनों में चन्द्रमा नहीं देख पडता) लज्जा से भूमि में गाडा गया ॥ फिर जो (भूमि से) उठा तो दुइज (द्वितीया को फिर चन्द्रमा देख पडता है) हो कर, अर्थात् दुइज का चाँद कहा कर नय गया (दुइज का चाँद इंसुओं के ऐसा झुका . रहता है), अर्थात् शोच से झुक गया कमर टेढी हो गई। (ऐसौ चन्द्र की दुर्दशा देख कर तव) ब्रह्मा (विधि) ने ( उस दुइज के) चन्द्र को निःकलङ्क बनाया (निर्माण किया) ॥ दुदूज के चन्द्रमा में कलङ्क नहीं देख पडता, दसौ से लोग इसे पवित्र समझ श्रादर से दर्शन करते हैं, और हाथ जोड जोड शिर झुकाते हैं। इसी कारण महादेव जी ने भी अपने ललाट पर दुइज-ही का चन्द्र धारण किया है। और पूर्णिमा के चन्द्र में उस का सब कलङ्क देख पडता है, इसी लिये दूस का उतना आदर नहीं है। शशि शब्द मलिक महम्मद के मत से स्त्रीलिङ्ग है। दूस लिये सर्वत्र स्त्रीलिङ्ग का प्रयोग किया है। उस पद्मावती के शरीर में जो पद्म-गन्ध (कमल के ऐसौ
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