पदुमावति । ३ । अनम-खंड। [५७-५८ सुनाता है, अर्थात् चन्द्र-रूप जहाँ पद्मावती है वहाँ (सूर्य) पुरुष की कथा कहता है। माऊ और बारौ येही तोते के शत्रु हुए। (राजाज्ञा को) सुन कर (मारने के लिये ) ऐसे दौडे (धाये ) जैसे बिलैया दौडती है ॥ जब तक बिलैया श्राने नहीं पाई, अर्थात् जब तक नाऊ बारी नहीं पहुँचे, तब तक रानी ( पद्मावती) ने तोते को छिपा लिया ॥ (नाऊ बारी के पहुंचने पर उन से सब हाल सुन कर पद्मावती ने कहा, कि) पिता को प्राज्ञा मेरे माथे पर है, अर्थात् उन को श्राज्ञा शिरोधार्य है, (परन्तु तुम लोग) जा कर कहो, कि (पद्मावती) हाथ जोड कर बिनती किया है, कि पक्षी जान-कार) नहीं होता, वह भोजन (भुक्ति) जानता है, अथवा (कि) उडना जानता है॥ तोता जो वचन पढता है, सो पढाने से (अर्थात् उसे स्वयं पढने वा कुछ कहने की शक्ति नहीं)। जिस के हृदय में आँख नहीं है, अर्थात् प्रज्ञा-चक्षु नहीं है, उसे कहाँ बुद्धि (जो दूसरे को मिखावे ) ॥ वह माणिक्य और मोती को देख कर हृदय में ज्ञान नहीं करता, अर्थात् उसे यह ज्ञान नहीं होता, कि यह माणिक्य मुक्ता है, किन्तु वह ( उन माणिक्य मुक्ताओं को) दाडिम और द्राक्षा (अङ्गर वा मुनक्का ) जान कर, उसी समय (तब-हिँ ) ठोर भर लेता है, अर्थात् खाने के लिये ठोरों में भर लेता है ॥ ५७ ॥ कोई सुज्ञ चउपाई। वेइ तो फिरे उतर अस पावा। बिनवाँ सुअइ हिअइ डरु खावा ॥ रानी तुम्ह जुग जुग सुख पाऊ। हउँ अब बनोबास कहँ जाऊँ ॥ मोतिहि जो मलीन होइ करा। पुनि सो पानि कहाँ निरमरा ॥ ठाकुर अंत चहइ जेहि मारा। तेहि सेवक कहँ कहाँ उबारा॥ जेहि घर काल मजारी नाँचा। पंखो नाउँ जीउ नहिँ बाँचा ॥ म. तुम्ह राज बहुत सुख देखा। जउँ पूछह देइ जाइ न लेखा ॥ जो हौछा मन कीन्ह सो जवा। यह पछिताउ चलउँ बिनु सेवा ॥ 1 दोहा। मारइ सोई निसेोगा, डरइ न अपने दोस । केला केलि करइ का जो भा बेरि परोस ॥ ५८ ॥
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