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पृष्ठ:पदुमावति.djvu/१७१

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५८-५६] सुधाकर-चन्द्रिका। श्रायु। बनोबास श्राऊ= =वनवास। करा कला = कान्ति । निरमरा = निर्मल ठाकुर = मालिक । उबार = उद्धार = रचा। लेखा = हिसाब । हौंछा = दृच्छा। जैवा- भोजन किया। निमोगा = निशोक = निश्चय कर के जिसे शोक हो (प्रभागा)॥ वे (नाऊ बारी) तो ऐसा उत्तर पाये और फिर गये, (इस के अनन्तर) तोते ने हृदय में डर खा कर, अर्थात् डर कर ( पद्मावती से ) विनय किया ॥ कि हे रानी . तुम्हारौ युगानुयुग सुख से श्रायु हो, अर्थात् तुम युग युग सुख से जीवो, (४ ३ २ ० ० ० ० इतने वर्ष का एक युग होता है, इसे एक चौकडी भी कहते हैं)। (परन्तु ) अब (आप को अाज्ञा हो, तो) मैं (हउँ) वनवास के लिये जाऊं ॥ (क्योंकि ) मोती को कान्ति (कला), अर्थात् श्राब, जब मलिन हो गई तब वह निर्मल पानी (श्राब) फिर कहाँ, अर्थात् पहले मैं निःशङ्क था अब शङ्कित होने से, मोती के श्राब ऐसा, जो सुख निकल गया, वह फिर कहाँ ॥ वनवास में फिर हेतु देता है, कि मालिक अन्त में, अर्थात् अन्तःकरण में (हृदय में), जिस को मारने चाहता है, अर्थात् मारने की इच्छा करता है, तिस सेवक का (फिर ) कहाँ उबार अर्थात् रक्षा हो। तात्पर्य कि वह सेवक फिर नहीं बच सकता ॥ फिर वनवास में दूसरा हेतु कहता है, कि जिस घर में काल के रूप बिलैया नाँचती है, उस घर में पक्षी नाम मात्र प्राणियों का जीव नहीं बचता || तुम्हारे राज्य में मैं ने बहुत सुख देखा। जो पूछो तो ( मुझ से ) हिसाब (लेखा) न दिया जाय ॥ जो मन में इच्छा किया सो भोजन किया, (अन्त में) यही पछतावा है, कि विना (तुम्हारी) सेवा (खिदमत) किये चलता है, अर्थात् जाता हूँ । जो अपने दोष से, अर्थात् पाप से, नहौं डरता, वही अभागा (दूसरों को) मारता है॥ सो जो बैर पड़ोस में हुई, तो केला क्या केलि (क्रौडा) करे। अर्थात् केलि करने से शरीर के नाश होने की सम्भावना है, क्योंकि जहाँ केले क्रीड़ा करने के लिये अपने पत्ते को धर उधर फैलाया, तहाँ झट बैर के काँटों में फंस कर नष्ट हुा । . दूसौ प्रकार जहाँ मैं केला-रूप क्रीडा से तुम से और कुछ विशेष बात चौत किया, कि तुम्हारे पिता बैर द्वारा प्राण को गवाया ॥ ५८ ॥ चउपाई। रानी उतर दोन्ह कइ मया। जउँ जिउ जाइ रहइ किमि कया॥ होरामनि तु परान परेवा। धोख न लागु करत तोहि सेवा ॥