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पृष्ठ:पदुमावति.djvu/१९३

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७१ - ७२] सुधाकर-चन्द्रिका। क्योंकि घास-पात-वाले छोटे वृक्ष प्रायः हवा में चलते हैं, दूस लिये उन में विशेषता नहीं है) ॥ सो आज जो वृक्ष चलता है (दूस से जान पडता है कि) भला नहीं है, (मो) श्राश्रो इस वन को छोड कर भाग चलें ॥ (ऐमा आपस में सलाह कर) वे (सब पौ) तो उडे (और) दूसरे (अउरु = अपर) वन को देखा, (परन्तु वृक्षों को हरियारौ और फलों में) भूल कर पण्डित-शक (हौरा-मणि) का मन थक गया, अर्थात् उन्हौँ फूल-फलों में लुभा कर दूस का मन रह गया । इस लिये अन्यत्र न जा मका ॥ क्योंकि (दूम को बहुत काल पर वृक्षों के) शाखाओं को देख कर (दूतना आनन्द हुआ), जानाँ राज्य पा गया, दूस लिये बेफिक्र (निश्चिन्त ) बैठा रहा, (और) वह (व्याधा) (इस के पास ) चला आया ॥ (उस बहेलिये का) पाँच वाण का खाँचा था, अर्थात् उस खाँचे के सिर पर पाँच बाण लगे थे, और वे पाँचो जो थे मो लामा से भरे थे। (उस खाँचे से बहे- लिये जो मारा, तो वह खाँचा होरा-मणि को) पक्ष से भरी शरीर (तनु ) में अरुझ गया, फिर (वह होरा-मणि अब ) मारे विना कैसे बँचे ॥ ७१ ॥ चउपाई। बँद भा सुश्रा करत सुख केली। चूरि पाँख धरि मेलेसि डेली ॥ तहवाँ पंखि बहुत खरभरहौँ । आपु आपु मँह रोदन कर हौं । बिख-दाना कित देइ अँगूरा। जेहि भा मरन डहन धर चूरा ॥ जउँ न होत चारा कइ आसा। कित चिरि-हार ढुकत लेइ लासा ॥ प्रड बिख-चारइ सब बुधि ठगी । अउ भा काल हाथ लेइ लगी ॥ प्रहि झूठी माया मन भूला। चूरइ पाँख जइस तन फूला ॥ यह मन कठिन मरइ नहिँ मारा। जार न देखु देखु पइ चारा ॥ दोहा। हम तउ बुद्धि गवाँई बिख-चारा अस खाइ । तूं सुअटा पंडित हता तूं कित फाँदा आइ ॥ ७२ ॥ 15