सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:पदुमावति.djvu/१९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१९४ पदुमावति । ५ । सुया-खंड । [७२ 1 बंद = बाँद = कैद। चूरि = चूर्ण कर । मेलसि = डाल दिया । डेली = झाँपो, जिस में बहेलिये पक्षी को फंसा कर रख लेते हैं। खरभरहौं =खरभराते हैं। बिख विष। डहन = उड्डयन = डैना। धर = धड = गले के नीचे का शरीर-भाग। चूरा = चूर्ण किया। श्रासा = आशा = उम्मेद। चिरि-हार = चटक-हर = चिडियों का मारने-वाला = बहेलिया। बुधि = बुद्धि । लगौ = लग्गी = लगुड = वंश-दण्ड । चूरद = चूर्ण करता है। जार = जाल। चारा भक्ष्य। गवाँई = खो दिया । हता= आसीत् = था। फाँदा = फंदे में पडा ॥ सुख से क्रीडा ( केलि ) करते (-हौ) शक कैद हो गया। (बहेलिये ने जो पंखे लासा से भर गये थे उन्हें) चूर कर (शुक को) पकड कर (धरि), डेली में डाल दिया ॥ तहाँ पर बहुत पक्षी खरभराते हैं, अर्थात् हौरा-मणि को यह गति देख बहुत पक्षी खरभराने लगे, और आप आप में (आपस में ) रोदन करते है (रोने लगे) ॥ (हौरा-मणि की यह दुर्गति देख पक्षियों को वैराग्य सूझा, इस लिये वेदान्त की कथा कहने लगे, कि) ( यह ) अङ्कर अर्थात् अङ्गर से सुन्दर वृक्ष विष का दाना क्यों देता है (क्योंकि दूसौ के फल के लोभ से उडना नहीं होता), जिस (विष के दाने से फल के कारण ) से (इस हौरा-मणि का) मरना हुआ, और डैना और धड चूर किया गया ॥ यदि चारे को अाशा (उम्मेद वा लोभ) न होती, तो चिडि-हारा क्यों लामा ले कर ढुकता, अर्थात् चारे-हौ को आशा से एक स्थान पर पक्षियाँ का रहना होता है, जिस से फंसाने के लिये बहेलियों को अवसर मिलता है ॥ दूसौ विष चारे ने (हीरा-मणि के) सब बुद्धि को ठग लिया, और हाथ में लग्गी ले कर (इस का) काल हुआ.॥ ( सो हम लोगों का ) मन झूठो माया में भूला हुआ है, ( यह नहीं जानता कि अभिमान से) जैसे-हौ शरीर (तनु) फूलती है, तैसे-हौ (ईश्वर के कोप से ) पंखे होते हैं ॥ (सो) यह मन कठिन है मारने से नहीं मरता, अर्थात् इसे कितना-ह रोको, नहीं रुकता, (क्योंकि चारे पर अन्धा हो कर ऐसा टूटता है, कि) जाल, जिस में निश्चय है, कि फंस जायेंगे, उसे नहीं देखता पर चारे को देखता है। पक्षी सब कहते हैं, कि हम लोगों नें तो ऐसे विष चारे को खा कर बुद्धि को खो (गवाँ) दिया है। (परन्तु) + तो, रे शुक, पण्डित था; हूं क्यों आ कर फंस गया, अर्थात् फंदे में पड़ा ॥ ७२ ॥