७७-७८] सुधाकर चन्द्रिका। 373 ( हाय, मेरा) माथी चला, और सत्य भी टला, अर्थात् जो नियम कर के ऋण लिया था, लाभ न होने से, वह भी बिगडा। और ( मेरे और घर के) बीच समुद्र और पहाड हो गये। (हाय, मैं अब ) आशा से नैराश्य हो कर फिरता हूँ, (सो) हे ब्रह्मा, दूँ (कुछ ) आधार (अवलम्व ) दे ॥ ७७ ॥ चउपाई। तब- - -हिँ बिअाध सुआ लेइ आवा। कंचन बरन अनूप सोहावा ॥ बैंचइ लाग हाटि लेइ आहो। मोल रतन मानिक जेहि होहो ॥ सुत्र को पूँछइ पतंग मदारे। चलन देख आछइ मन मारे ॥ बाम्हन आइ सुआ सउँ पूँछा। दहुँ गुनवंत कि निरगुन ठूछा ॥ कहु परबते जो गुन तोहि पाहा। गुन न छपाइअ हिरदा माँहा ॥ हम तुम्ह जाति बराम्हन दोज। जाति-हि जाति पूँछ सब कोज ॥ पंडित हहु तो सुनावहु बेदू। बिनु पूँछे पाइअ नहिँ भेदू ॥ दोहा। सुत्रा-शुक। बरन = वर्ण हउँ बाम्हन अउ पंडित कहु आपन गुन सोइ। पढे के आगे जो पढइ दून लाभ तेहि होइ ॥ ७८ ॥ विश्राध = व्याध। कंचन = कञ्चन = सुवर्ण । अनूप = अनुपम । हाटि = हाट में । पतंग = पतङ्ग = फतिङ्गा = कोट। मदारे = मदार का (मदार एक वृक्ष होता है, जिस का फूल महादेव को चढता है। इसे संस्कृत में अर्क, भाषा में श्राक भी, कहते हैं। यह औषधि में भी बड़े काम का है)। आछद् = अच्छी तरह से। दहुँदो में से एक = देखें = क्या जानें। परबते = पार्वतीय = पर्वत का= पहाडौ। बराम्हन = ब्राह्मण । भेदू = भेद = पता । दून = दूना = दिगण ॥ (ब्राह्मण ताप करता-ही था) तिसौ समय (तब-हौं) व्याध शाक को ले कर पाया, (जिस का) सुवर्ण सा वर्ण अनुपम शोभित था ॥ (व्याध उस हाट में ) उस (शुक) को (ोही) ले कर बेचने लगा, जिस (हाट) में रत्न और माणिक्यों (मानिक) का मोल होता है, अर्थात् जहाँ अनेक रत्न बिक रहे हैं ॥ (जिम हाट में “लाख करो- -
पृष्ठ:पदुमावति.djvu/२०३
दिखावट